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-१५. २६]
सामायिक प्रतिमाप्रपञ्चनम् -
1202 ) गन्धः शुभैर्वाप्यमृर्तः पवित्रैर्मध्येन मंश्चोर्ध्व मधोरभूषम् । कोर्ध्व बिन्दुप्रतिभासमानं तत्पृष्ठ देशस्थमनाहतं च ॥ २२ 1203) ॐ ह्रीं पुरःस्थस्वर केशरैश्च सुधावदातैः कृतवेष्टनं तत् । सन्मन्त्रराजं परमेष्ठिपञ्चसांनिध्यनिर्दर्शनभाजि मूर्तिः ।। २३ 1204 ) णमो सिद्धाणमित्यादिमन्त्रैरौ -हीं' पुरःसरैः ।
स्वाहान्तैः प्रागपागादिविदिक्पत्राणि पूरयेत् ॥ २४ 1205 ) आग्नेयनैर्ऋतप्रायविदिवपत्राणि संभृयात्' ।
ॐ ह्रीं प्रमुख स्वाहान्तं मन्त्र दुर्दृष्टिं दुर्लभैः ॥ २५ 1206 ) सम्यग्दर्शन विज्ञानचारित्रचतुरङ्गकम् । बीजैरेभिश्चतुर्थ्यन्तै मया बीजेनं वेष्टयेत् || २६
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अथवा पवित्र अमृत से मध्य में शून्य व ऊपर नीचे रेफ से विभूषित -हूँ को तथा उस के पृष्ठ भाग में अवस्थित कला व ऊर्ध्व बिन्दु से प्रतिभासमान अनाहत - ॐ - को भी लिखना चाहिये ॥ २१-२२ ॥
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ॐ ह्रीं पूर्वक सुधा - अमृत अथवा चूना के समान निर्मल स्वरोंरूप केशर से वेष्टित वह मन्त्रराज पाँच परमेष्ठिओं के सामीप्य से निदर्शन को प्राप्त होता है ॥ २३ ॥
तत्पश्चात् पूर्व में ॐ ह्रीं तथा अन्त में स्वाहा शब्दयुक्त ' णमो सिद्धाणं' इत्यादिक मन्त्रों से पूर्व पश्चिम आदि चार दिशाओं के पत्तों को पूर्ण करना चाहिये । फिर ॐ ह्रीं को पूर्व में तथा स्वाहा को अन्त में कर के मिथ्यादृष्टियों के लिये दुर्लभ मंत्रों से आग्नेय और नैर्ऋत्य दिशा आदि विदिशागत पत्तों कों पूर्ण करना चाहिये । सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित्र और तप इस चतुरंग को मायाबीज के साथ चतुर्थी विभक्त्यन्त इन्हीं बीजपदों से ( ॐ ह्रीं सम्यग्दर्श नाय नमः स्वाहा ॐ ह्रीं सम्यक्ज्ञानाय नमः स्वाहा इत्यादि) वेष्टित करना चाहिये ॥ २४- २६ ॥
तथा अंकुश लिखने चाहिये । ये सब मन्त्र सम्यग्दृष्टिओं को दुर्लभ नहीं है । इस वाक्यांशका अध्याहार करना चाहिये ।
२२ ) 1 नभः हकारः अधः ऊर्ध्वे रकारः, कलाबिन्दुः व्हा । २३ ) 1 P° स्वधापदान्तेः । २४ ) 1 | २५) 1 P° संभृयात् श्लोकपूरणम्. 2 P° मन्त्रैर्दृष्टि । २६ ) 1 मायाबीजेन हींकारेण ।
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