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________________ ३०४ - धर्मरत्नाकरः - [१५. १६1196) जगदीशत्वसंपत्त्यै दीपैनिःकज्जलैरपि । सपिभिः स्नेहिलानन्दानन्त्यसर्पत्वभूतये ॥ १६ 1197) क्षीरसिन्धुपयःस्नानसिद्धथै क्षीरं निवेदयेत् । स्वाधाराधेयसभावप्राभवाय दधीन्यपि ॥ १७ 1198) स्वस्वादुचिद्रससरोमज्जनाय जगद्गुरून् । ऐक्षवीयरसोत्पूरैः पूतैराराधयाम्यहम् ॥ १८ 1199 ) वाङमयाद्गन्धशिवतासिद्धथै गन्धशिवैरपि । असाधारणधन्यत्वप्राप्त्यै धान्यैरनेकधा ।। १९ 1200) कान्तिव्याप्तसमस्ताशै रत्न रत्नत्रयाप्तये । सर्वैः फलैरदृष्टोत्थफलप्रलयनाय च ॥ २० 1201 ) भूमौ शुचौ वा यदि वा शिलायां शिवे पवित्रे च पटे ऽपि भर्जे । भूमण्डलान्तर्गतकणिकाढयं पद्यं लिखित्वाष्टदलं विकासि ॥ २१ इसी प्रकार लोकाधिपतित्व की प्राप्ति के लिये काजल से रहित दीपों से तथा स्नेहयुक्त आनन्दप्रद अपरिमित धरणेन्द्र को विभूति की प्राप्ति के लिये घी से श्रीजिनेन्द्रकी पूजा करना चाहिये ॥ १६ ॥ क्षीरसमुद्र के जल से स्नानसिद्धि के लिये-तीर्थकर पद प्राप्त करने के लिये दूध को और अपने आधार के आश्रय से रहने वाले समोचोन भावों के प्रभुत्व की प्राप्ति के लिये दही को भी समर्पित करना चाहिये ॥ १७ ॥ मैं अपने स्वादिष्ट चैतन्यरूप जल के सरोवर में स्नान करने के लिये पवित्र ईख के रसप्रवाह से जगद्गुरुओं-जिनेन्द्रों - की आराधना करता हूँ ॥ १८ ॥ आगम से गन्धशिवता ( ? ) की सिद्धि के लिये गन्धशिवों से, असाधारण श्रेष्ठता की प्राप्ति के लिये अनेक प्रकार के धान्यों से, रत्नत्रय की प्राप्ति के लिये अपनी कान्ति से समस्त दिशाओं को व्याप्त करने वाले रत्नों से, तथा पुण्य-पाप से उत्पन्न फल को नष्ट करने के लिये सब फलों से मैं पूजा करता हूँ ॥ १९-२०॥ पवित्र भूमि, शिला, कल्याणकारक वस्त्र अथवा पवित्र भूर्जपत्रपर पृथिवीमण्डल के अन्तर्गत कर्णिका से व्याप्त विकसित आठ दल वाले कमल को लिखकर उत्तम गन्ध (चन्दन) १६) 1 घृतैः स्नपनम्. 2 धरणेन्द्रविभूतिनिमित्तं भवति । १७) 1 तीर्थंकरप्राप्तिसिद्धय । १८) 1P°खास्वादु', स्वर्ग. 2 P°ईक्षवीय', इक्षुरस । २१) 1 D° पटेऽभि भूज.
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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