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-१५. १५] - सामायिकप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1191) यद्भवभ्रान्तिनिर्मुक्तिहेतवस्तत्र दुर्लभाः।।
संसारव्यवहारे तु स्वतःसिद्ध वृथागमः ॥ १३*८ 1192) तथाहि
आप्लुतः संप्लु तः स्वान्तः शुचिवासोविभूषितः ।
मौनसंयमसंपन्नः कुर्यादेवार्चनाविधिम् ॥ १३७९ 1193) दन्तधावनशुद्धास्यो मुखवासाञ्चिताननः ।
असंजातान्यसंसर्गः सुधीर्देवानुपाचरेत् ॥ १३*१० 1194 ) अमृतैरमृतत्वाय चन्द्रश्रीखण्डकुङ्कुमैः ।
घनसाराविखण्डश्रीपाप्त्यै स्वस्य जिनेश्वरान् ॥ १४ 1195 ) सुमनःप्रार्चनासिद्धथै सुमनोभिरुपार्चयेत् ।
समस्ततापविच्छित्त्यै धूपैयूं पितविष्टपैः॥ १५ । युग्मम् । कारण यह है कि वहाँ - जातिसे शुद्ध वर्णवालों में – संसार परिभ्रमण से छुटकारा पाने के जो कारण (सम्यग्दर्शनादि) हैं वे दुर्लभ हैं। इसके विपरीत संसार का जो व्यवहारविषयोपभोगादि - है वह तो स्वयं ही सिद्ध है, इसीलिये उस में प्रवृत्त करने के लिये आगम का विधान निरर्थक है ॥ १३*८ ॥
जिसने कण्ठ तक अथवा मस्तक तक स्नान को किया है, जिसका अन्तःकरण शुद्ध है, जो शुद्ध वस्त्रों से विभूषित है, तथा जो मौन व संयम से संपन्न है, ऐसे श्रावक को देव पूजा की विधि को करना चाहिये ॥ १३*९ ।।
जिसने दातौन से अपने मुख को शुद्ध कर लिया है, जिसका मुख मुखवस्त्र से संयुक्त है अर्थात् जो मुख से थूक आदि इधर उधर न जाय इस के लिये मुख को शुद्ध वस्त्र से आच्छा दित किया है, तथा जिसके लिये अन्य किसीका स्पर्श नहीं हुआ है, ऐसे विद्वान् को देवों की पूजा उपासना करनी चाहिये ॥ १३*१० ॥
श्रावक को अमृतत्व के लिये - जन्म और मरण से रहित होने के लिये - जल से अपने को अतिशय श्रेष्ठ शाश्वतिक लक्ष्मी (मुक्ति) की प्राप्ति के लिये कपूर, चन्दन और केसर से, देवों के द्वारा विरचित पूजा की प्राप्ति के लिये फूलों से तथा समस्त सन्ताप को दूर करने के लिये लोक को सुगंधित करने वाली धूप से जिनेन्द्रों की पूजा करनी चाहिये ॥ १४-१५॥
१४) 1 जलः . 2 कर्पूर । १५) 1 देवानाम्. 2 पुष्पैः 3 जगद्भिः।