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- धर्मरत्नाकर: -
[ १५. १३१२1185) अद्भिः शुद्धि निराकुर्वन् मन्त्रमात्रपरायणः ।
___स मन्त्रैः शुद्धिभाङ् नूनं भुक्त्वा हृत्वा विहृत्य च ॥ १३*२ 1186) मृत्स्नयेष्टकया वापि भस्मना गोमयेन च ।
शौचं तावत्प्रकुर्वीत यावन्निर्मलता भवेत् ॥ १३*३ 1187 ) बहिविहृत्य संप्राप्तो नानाचम्य गृहं विशेत् ।
स्थानान्तरात्समानीतं सर्व प्रोक्षितमाचरेत् ॥ १३*४ 1188) द्वौ हि धौ गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः ।
लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ॥ १३*५ 1189 ) जातयो ऽनादयः सर्वास्तत्क्रियाश्च तथाविधाः ।
श्रुतिः शास्त्रान्तरं चास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षतिः ॥ १३*६ 1190 ) स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत् ।
तक्रियाविनियोगाय जैनागमविधिः परम् ॥१३१७
- ब्रह्मचारी आदिक जल से शुद्धि का निराकरण कर के मन्त्रमात्र में तत्पर रहते हुए भोजन कर के, हरण कर के (?) और विहार कर के मन्त्र के द्वारा शुद्धि को प्राप्त होते हैं ॥ १३*२॥
मट्टी, ईट, राख -और गोबर से तब तक शुद्धि करनी चाहिये जब तक कि निर्मलता नहीं होती है ।। १३३ ॥
__बाहर जाकर के आचमन के बिना घर में प्रवेश नहीं करना चाहिये तथा स्थानान्तर लाये गये पदार्थ के ऊपर जल छिडक कर उसे उपयोग में लाना चाहिये ॥ १३*४ ॥
गृहस्थों के दो धर्म हैं - लौकिक और पारलौकिक - उन में प्रथम लौकिक - धर्म लोकाश्रय अर्थात् लोकव्यवहार के आश्रित तथा दूसरा - पारलौकिक - आगम के आश्रित हैं ॥ १३*५॥
सर्व जातियाँ तथा उन के आचार – विवाहादि – अनादि है । श्रुति (वेद) और अन्य शास्त्र भी प्रमाण रहें, इस में हमें कुछ कभी बाधा नहीं हैं ॥१३*६॥
जो वर्ण - ब्राह्मणादि -- अपनी जाति से ही विशुद्धि को प्राप्त हैं, उन के लिये यहाँ जैन आगम का विधान केवल उनके क्रियाकाण्ड की योजना के लिये है । (अपनी अपनी जाति के अनुकूल आचरण में सहायक मात्र है) ॥ १३*७ ।।
१३०२) 1 जलैः।