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________________ - १५.१३*१] 1180) धर्मवाकलिते वहत्यथागाघवारिभरिते जलाशये । संविगाह्य तदाचरेतो वस्त्रपूतमपरं समाचरेत् ॥ १२ • सामायिक प्रतिमाप्रपञ्चनम् - - 1181 ) पादजानुकटिग्रीवाशिरः पर्यन्तसंश्रयम् । स्नानं पञ्चविधं ज्ञेयं यथादोषं शरीरिणाम् ।। १२*१ 1182 ) ब्रह्मचर्योपपन्नस्य निवृत्तारम्भ कर्मणः । यद्वा तद्वा भवेत्स्नानन्त्यमन्यस्य तद्द्द्वयम् ॥ १२२ ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षाणि अमृतं स्रात्रय स्रावय स्वाहा । 1183 ) इति मन्त्रं विन्यस्य सप्तकृत्वो ऽमृते ऽत्र तु । आप्लाव्यमानं स्वं ध्यायन् मायाबीजेन मज्जतु ॥ १३ 1184 ) सर्वारम्भविजृम्भस्य ब्रह्मजिह्मस्य देहिनः । अविधा बहिःशुद्धि नाप्तोपास्त्यधिकारिता ।। १३*१ 1 धूप अथवा वायु से परिपूर्ण, बहते हुए, अथवा अथाह जल से भरे हुए - गहरे - जलाशय ( नदी - तालाब आदि) में स्नान कर के देवपूजनादि करना चाहिये। ऐसे जल के सिवाय अन्य जल को वस्त्र से पवित्र कर के छानकर - स्नानादि के उपयोग में लाना चाहिये ॥ १२ ॥ प्राणियों का स्नान पादपर्यन्त घुटनेपर्यन्त, कटिपर्यन्त, कण्ठपर्यन्त और शिरपर्यन्त के आश्रय से पाँच प्रकारका है, जो उत्पन्न हुए दोष के अनुसार किया जाता है, ऐसा समझना चाहिये ॥ १२*१ ॥ - ३०१ ब्रह्मचर्य से विभूषित होकर समस्त आरम्भ कार्य का परित्याग कर चुका है उसका उक्त पाँच प्रकार के स्नान में से कोई भी स्नान इच्छानुसार हो सकता है । पर अन्य के लिये - जो स्त्री आदि का सेवन करता हुआ आरम्भ कार्य में निरत है उसके लिये अन्त के दो स्नान ग्रीवा ओर शिरपर्यन्त - आवश्यक होते हैं । १२*२ ॥ " स्नान करते समय “ ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय स्वाहा' इस मन्त्रको जल में स्थापित कर के सात वार डुबकी लगाते हुए अपना ध्यान करना चाहिये और मायाबीज (ह्रों) अक्षर कहकर पानी में अवगाहन करना चाहिये ॥ १३ ॥ १२) 1 जलम् । जिसके सब आरम्भ वृद्धिको प्राप्त हैं तथा जो ब्रह्मचर्य में शिथिल है एसा श्रावक बा शुद्धि के विना जिनपूजन करने का अधिकारी नहीं है ॥१३*१ ॥
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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