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-१४. ३६] - द्वितीयप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
२९. 1165) यो ऽणुव्रतानि परिपात हि केवलानि देही लघुर्भवति मूलगुणश्च मध्यः
सर्वातिचाररहितः सगुणवतैर्वा ज्येष्ठस्तु दर्शनविशुद्धिपरायणो यः ॥ ३५ 1166) अत्यारम्भवतां भवेत्सुखभुजां क्लीबं मनो बिभ्रतां
दुष्पापा व्रतमालिका गुणयुता विन्यासि वक्षःस्थले । मुक्तालीव नरेण येन नियता स्वःसंपदा पद्धतिस्तस्यैव प्रतिमा प्रशस्यत इयं मुख्या द्वितीयागमे ॥ ३६ इति श्री-सूरि-श्री-जयसेनविरचिते धर्मरत्नाकरनामशास्त्रे सभेदद्वितीयप्रतिमाप्रपञ्चनं चतुर्दशो ऽवसरः ॥१४
कषायों की मन्दता को किया करते हैं उसी प्रकार गुणवतों की उपासना करने वाले श्रावक भी संपूर्ण दुर्वार कषायों की मन्दता को करते हैं । (अभिप्राय यह है कि गुणवतों के परिपालन से प्राणी की कषायें मन्दता को प्राप्त कर लेती हैं ) ॥ ३४ ॥
जो प्राणी केवल अणुव्रतों का ही परिपालन करता है वह हीन, जो मूल गुणों के साथ उन अणुव्रतों का पालन करता है वह मध्यम तथा जो सम्यग्दर्शन के निर्मल करने में तत्पर होता हुआ समस्त अतिचारों से रहित हो कर उपर्युक्त गुणव्रतों के साथ उनका पालन किया करता है वह ज्येष्ठ - उत्तम - होता है ।। ३५ ॥
___जो मनुष्य अत्यधिक आरम्भ में तत्पर, सुख के भोगने में आसक्त और दुर्बल मन धारक होते हैं उनके लिये गुणयुक्त – गुणवतोंरूप धागे से संयुक्त - यह व्रतमालिका-अणुव्रत रूप पुष्पों की माला - दुर्लभ होती है जिस भव्य मनुष्य ने मोतियों की पंक्ति के समान उपर्युक्त व्रतों की माला को अपने वक्षःस्थल में धारण किया है उसके लिये स्वर्गीय सम्पत्तियों का मार्ग निश्चित है - उसे निश्चयसे स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है । तथा आगम में उसी की इस श्रेष्ठ द्वितीय प्रतिमा की प्रशंसा भी की गई है ॥३६ ॥ इस प्रकार धर्मरत्नाकर नामक शास्त्र में भेदोंसहित द्वितीय प्रतिमा का विस्तार
करनेवाला चौदहवाँ अवसर समाप्त हुआ ॥१४॥
३५) 1 रक्षति. 2 जघन्य: श्रावकः, 3 उत्तम. 4 P°इति धर्मरत्नाकरे सभेद
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