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________________ -१४.२५] - द्वितीयप्रतिमाप्रपञ्चनम् - २९५. 1156) एनः प्रयोजनक्शानियतं तनोति कालादयो ऽस्य नियमस्य विधायकाः स्युः। यनिःप्रयोजनमिदं सततं प्रभुतं तत्को ऽफलं च विपुलं च बुधो विदघ्यात् ॥ २६ 1157 ) नानर्थबहुलाथै ऽपि प्रवर्तन्ते विपश्चितः । किं पुनः केवले ऽनर्थे निश्चिते ऽपि हितैषिणः॥ २७ 1158) अनर्थदण्डादपराङ्मुखायाः कृषीवलायाः सुतमाद सर्पः । व्याघ्रो भिषक्पुत्रमभक्षयच्च परोपकर्तारमरं क्षुधातः ॥ २८ 1159 ) लोहास्त्रसंग्रहनिवृत्तिपरस्तु मन्त्री पूजामवाप स तदैव नृपादिलोकात् । सोमापि तद्वपुररोहतदायधर्मान [?]मालाभवत्सकुसुमाग्यदर्शत्सपत्नीम् ॥ गृहस्थ प्रयोजन के वश नियमित पाप को किया करता है। तथा इस नियम के करने वाले काल आदि हैं । परन्तु प्रयोजन के विना जो यह निरन्तर प्रचुर पाप होनेवाला है, उसको निष्फल व अधिक मात्रा में कौनसा बुद्धिमान् करने को उद्यत होगा ? (कोई भी विचारशील व्यक्ति निरर्थक पापकार्य को नहीं करना चाहेगा । अभिप्राय यह है कि प्रयोजन के वश जो सावद्य कार्य किया जाता है, वह काल और देश आदि के नियमानुसार ही किया जाता है, इसलिये उस में सीमित पाप का उपार्जन होता है । परन्तु जो सावध कार्य निरर्थक किया जाता है उस में देशकालादि का कछ भी बन्धन नहीं रहता है - वह स्वेच्छासे चिरकाल तक व जहाँ कहीं भी किया जा सकता है, अतः उसको पाप को कोई सीमा नहीं रहती है । इसीलिये गृहस्थ को उस निरर्थक सावध कार्य का परित्याग अवश्य ही करना चाहिये ) ॥ २६ ॥ जिस कार्य में अनर्थ की संभावना अधिक होती है उस में विद्वान् मनुष्य प्रवृत्त नहीं होते हैं। फिर जिस में केवल निश्चित ही अनर्थ हो ऐसे सावद्य कार्य में क्या कभी हितेच्छु विद्वान् प्रवृत्ति करेंगे ? ॥ २७ ॥ अनर्थ दण्ड से अपराङमुख - उसमें प्रवृत्त हुई - एक की स्त्री के पुत्र को सर्पने काट लिया था तथा अतिशय परोपकार करने वाले वैद्य के पुत्र को भूख से पीडित बाघने खा डाला था ॥ २८॥ लोहमय शस्त्रों के संग्रह के परित्याग में निरत मंत्री उसी समय राजा आदि को से पूजा को प्राप्त हुआ। तथा सोमा नामक सती स्त्रीने अपने गले में सर्प धारण किया परन्तु उसका पुष्पहार हुआ और उसकी सौतने गले में पुष्पहार धारण किया परन्तु उसका सर्प हुआ और उसने उसको दंश किया ॥ २९ ॥ २६) 1 P° एतः, D एतानि वस्तूनि निष्प्रयोजनवशात्. 2 D भवेयुः। २७) 1 P° बहुलेऽर्थे. 2 पण्डिताः । २८) 1 भक्षितवान्. 2 वैद्यपुत्रम्. 3 भक्षितवान् । २९) 1 P तद्वदहितत्रतदीय . 2 भक्षति स्म।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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