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- धर्मरत्नाकरः -
1152 ) भूखेननवृक्षमोट्टनशाद्द्व लदलनाम्बुसेचनादीनि । निःकारणं न कुर्याद्दलफलकुं सुमोच्चयानपि च ।। २४*१
[१४. २४#१
1153 ) नाराचतोमरशरासनकुन्तकुन्तीगन्त्री हेला नलकूपाणकृपाणिकाद्यम् । दद्यादद्य मनवद्यमना न किंचित् कः पातकं नरकपातकरं करोति ।। २५ 1154) रागादिवर्धनानां दुष्टकथानामबोर्ध बहुलानाम् ।
न कदाचनापि कुर्याच्छ्रवणार्जनशिक्षणादीनि ।। २५*१ 1155) कन्दर्प : कौत्कुच्यं भोगानर्थक्यमपि च मौखर्यम् । असमीक्ष्याधिककरणं तृतीयशीलस्य पञ्चेति ।। २५२
प्रमादचर्या का लक्षण
अनर्थ दण्डव्रती श्रावक को व्यर्थ में भूमि के खोदने, वृक्षों के तोडने, घास के विदीर्ण करने और पानी के सींचने आदि जैसे कार्यों को नहीं करना चाहिये । साथ ही उसे निष्प्र योजन पत्तों, फलों और फूलों के संचय को भी नहीं करना चाहिये ॥ २४*१ ॥
श्रावक हिसोपकरण का त्याग करे
निष्पाप अन्तःकरणवाले श्रावक को बाण, तोमर ( एक विशेष प्रकार का बाण ) धनुष, भाला, कुन्ती, गाडी, हल, अग्नि, तलवार और छुरी आदि पापोत्पादक उपकरणों को नहीं देना चाहिये । ठीक है, थोडेसे भी नरक में पडने योग्य पाप को भला कौन करेगा ? ॥ २५ ॥ जो दुष्ट 'कथायें प्रायः अज्ञानता से परिपूर्ण हो कर राग आदि दुर्भावों को बढानेवाली हो, अनर्थदण्ड व्रती श्रावक को न उन्हें कभी सुनना चाहिये, न संचित करना चाहिये ( अथवा न लिखना चाहिये) और न उनकी दूसरों के लिये शिक्षा आदि भी देना चाहिये || २५१ ॥ अर्थदण्डव्रत के पांच अतिचार
कंदर्प, कौत्कुच्य, भोगानर्थक्य, मौखर्य और असमीक्ष्याधिकरण ये पाँच अनर्थदण्डव्रत Saree तीसरे शील अतिचार हैं ।
१) कंदर्प - हासमिश्रित भण्डवचन बोलना । २) कौत्कुच्य - शरीर की कुत्सित चेष्टा करना । शरीर के अभिनयपूर्वक कामोत्पादक भाषण करना । ३) मौखर्य - धृष्टतापूर्वक अधिक बकवाद करना । ४ ) भोगानर्थक्य जितने भोगोपभोग पदार्थों से प्रयोजन सिद्ध हो जाता है उससे अधिक भोगोपभोग पदार्थोंका संग्रह करना । ५) असमीक्ष्याधिकरण - प्रयोजन का विचार न करकें अधिकता से कार्य का करना ॥ २५२॥
२४*१) 1 PD भूमि. 2 P° दलकुसुमौ । २५ ) 1 PD सकटी गाडी । २५ * १ ) 1 D दुर्बोध । २५*२) 1 D दुष्टभोगस्मरणम् ।