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________________ २९ -१४. २४] - द्वितीयप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1148 ) पञ्चेन्द्रियादिबहुजन्तुविधातहेतु मारक्षिकादिखरकर्म विपाकरौद्रम् । कुर्वीत नैव विषयामिषलाभलोभात् कस्तुच्छमिच्छति सुखं गुरुदीर्घदुःखम् ॥ २२ 1149) विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम् । • पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव कर्तव्यम् ॥ २२*१ 1150 ) दमयत वृषवृन्दं वाजिवृन्दारकाणां' कुरुत वृषणलोपं वल्लरे दत्तं वह्निम् । कृषत भुवमशेषां नो वदेदेवमाधं दिशति कुशलकामः को हिं पापोपदेशम् ॥ २३ 1151) शिखण्डिकुक्कुटश्येनबिडालसदशात्मनाम् । स्वीकारस्तादृशामर्थ न पुष्णाति वरं क्वचित् ॥ २४ जो कोतवाल आदि का निष्ठुर कार्य परिपाक काल में भयानक हो कर पंचेन्द्रिय आदि बहुत से प्राणियों के घात का कारण होता है उसे विषयभोगरूप माँस के लाभ के लोभ से कभीभी नहीं करना चाहिये। कारण कि ऐसा कौनसा बुद्धिमान् होगा जो दीर्घकाल तक महान् दु:ख के देनेवाले तुच्छ सुख की इच्छा किया करता हो ? ( अर्थात् थोडे से सुख के लिये महान दुख को कोई भी विवेकी जीव नहीं भोगना चाहेगा) ॥२२॥ विद्या – मंत्र - तंत्र आदि, व्यापार, लेखन-मुनोमी आदि, खेती, सेवा और शिल्पबढई आदि की क्रिया से आजीविका करने वाले पुरुषों के लिये पापमय उपदेश का दान कभी भी नहीं करना चाहिये ॥ २२*१॥ हे मनुष्यो ! तुम बैलों का दमन करो, उत्तम घोडों के अण्डकोशोंका लोप करोउन्हें निरर्थक कर दो, वन में अग्नि दे दो – उसे जला दो, तथा समस्त भूमि को जोत डालो, इत्यादि प्रकार के वचन श्रावक को नहीं बोलने चाहिये । ठीक है, अपने हित की इच्छा करने वाला कौन-सा मनुष्य हैं, जो इस प्रकार के पापोपदेश को करेगा ? ॥ २३ ॥ मोर, मुर्गा, बाजपक्षी और बिल्ली, आदि जैसे प्राणियों को स्वीकार करने से उत्तम अर्थ की सिद्धि नहीं होती है। (अर्थात् उन के रक्षण से पाप ही अधिक होता है) ॥ २४॥ २२) 1 कोट्टपालादिपद । २३) 1 अश्वप्रधानानाम्. 2 पेलच्छेदम्, D अण्डलोपम्. 3 Dवल्लीवने, 4 यूयं दत्त. 5 P° मशेषं. 6 PD कुशलकामं । २४) 1 PD° विराल ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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