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२९२ -धर्मरत्नाकरः -
[१४. १९1145) देहो देहभृतां भ्रमन्नतिभृतं बाधाविधायी यतो
गाढप्रौददृढप्रभूतविततज्वालो दवाग्निर्यथा। कृत्वा क्षेत्रनियन्त्रणां करुणया यात्रां परत्र त्यज
स्तज्जानामभयं भयंकरभवभ्रंशय दद्याद्गृही ॥ १९ 1146) अनर्थदण्डो विविधः प्रणीतः समासतः पञ्चविधः स चात्र ।
अनर्थ भीतैरिव दुष्टमैत्रीवधादिचिन्ताप्रमुखो विवर्यः ॥२० 1147 ) जीयादरातिविसरं वरनायको ऽयं
मुञ्चन्तु वा जलमुचौ विपुलं जलौघम् । ईतिक्षयो ऽस्तु भवतादिहदेशसौस्थमित्यादि चिन्तयति नानुचितं सुचित्तः ॥ २१
जिस प्रकार सघन, समर्थ, दृढ, विपुल, व विस्तृत ज्वालाओं से युक्त दावानल जीवों को बाधा पहुँचाता है उसी प्रकार स्वच्छन्दता से भ्रमण करने वाला यह देह प्राणियों को अतिशय बाधा पहुँचाया करता है। इसलिये क्षेत्रनियंत्रण को कर के - देश व्रत का परिपालन करते हुए - दयाल गृहस्थ को सीमित क्षेत्र के बाहिर गमन का परित्याग करके भयंकर संसार के नाश के लिये वहाँ पर उत्पन्न हुए प्राणियों को अभय देना चाहिये ॥ १९ ॥
अनर्थदण्ड अनेक प्रकार का है। यहाँ संक्षेपसे वह पाँच प्रकार का कहा गया है। अनर्थों से - निरर्थक प्राणिवध से - भयभीत हुए भययुक्त श्रावकों को दुष्ट मैत्री-दुर्जनसंगति -- एवं दूसरों के वधादि को चिन्ता आदि का त्याग करना चाहिये ॥२०॥
निर्मल बुद्धि, अनर्थ दण्डव्रती श्रावक, यह मनुष्योंका स्वामी याने राजा शत्रु समूहको जोते, मेघ प्रचुर पानी को बरसावें, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि सात प्रकार की ईति का नाश होवे, तथा यहाँ सब देशों को स्वस्थता- आरोग्य - प्राप्त होवे, इत्यादि प्रकार का विचार कर सकता है । परन्तु उसे अनुचित – दूसरों को कष्ट पहुँचानेवाला - विचार कभी नहीं करना चाहिये ॥ २१॥
१९) 1 D सन्. 2 D° क्षेषु नियन्त्रणां', मर्यादा. 3 तत्र जातानाम्, D जीवानाम्. P°नामलय भयं', अनाशम् । २०) 10 अपध्यानपापोपदेशप्रमादाचरितहिंसाप्रदानअशुभश्रुतिभेदात् । २१) 1 जयतु. 2 समूहम्, D अरातिसमूहम्. 3 मेघाः ।