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-१४. १८]
- द्वितीयप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
1142 ) शादूर्ध्वं गमनविरतिं श्राविका काप्यकार्षीत् सार्थस्यासीदुदयति रवौ दैवतस्तु प्रयाणम् । तस्याप्यग्रे गहनविपिने दुःफलास्वादनेन पञ्चत्वं तत्संपदि समभूज्जीविता तत्र सैका ? ।। १६
1143 ) देशव्रतं समवाप्य मृतं सार्थमजीवयत् ।
देवी तन्निश्चयात्तुष्टा वने तां' पर्यपूपुजत् ।। १७ । युग्मम् 1144 ) अवयातमितो ऽप्येतत्सावद्यात्त्रस्तंमानसः । विभीतैरिव दारिद्रयादुःप्रापः कल्पपादपः ॥ १८
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बाहर कार्य करने वालों को शब्द से कार्य में तत्पर करना, ४ ) रूपविनिपात - स्वयं मर्यादित क्षेत्र के भीतर रहकर बाहर कार्य करने वाले व्यक्ति को अपना रूप दिखाकर उसे कार्य में प्रवृत्त करना, और पुद्गलक्षेप - मर्यादित क्षेत्र में ठहर कर बाहर कार्य करने वालों के ध्यान . को खींचने के लिये उन की ओर कंकर पत्थर फेंकना ये; पांच उस द्वितीय शील देशव्रत के • अतिचार हैं ।। १५*१ ॥
fair श्राविकाने एक कोस के ऊपर गमन न करने का नियम किया था । दैवयोग से प्रातः काल में सूर्य के उदित होते ही सार्थ ने व्यापारियों के समूहने - प्रस्थान कर दिया । आगे एक गहन वन था । वहाँ पहुँच कर उस सार्थ ने विषफलों का भक्षण किया । इससे वह सब सार्थ मरण को प्राप्त हो गया, परन्तु वह श्राविका अकेली जीवन्त रही ॥ १६ ॥
उक्त श्राविका ने देशव्रत को धारण कर के मरण को प्राप्त हुए उस समस्त सार्थ क किसी देवी की सहायता से जीवित कर दिया । इस देवी ने उसकी व्रतविषयक दृढता से संतुष्ट हो कर वन में उसकी पूजा की ॥ १७ ॥
जिस प्रकार दरिद्रतासे भयभीत हुए प्राणियों के लिये कल्पवृक्ष दुर्लभ हुआ करता है । उसी प्रकार पाप से पीडित मनवाले प्राणियों के लिये यह देशव्रत भी दुर्लभ होता हैउसे विरले पुण्यशाली पुरुष ही धारण कर सकते हैं ॥ १८ ॥
१६) 1 P D सार्थस्य. 2 P° तान् सपदि 3 श्राविका । १७ ) 1 श्राविकाम्. 2D पूजयामास । १८) 1 D रक्षताम्. 2 D व्रतम्. 3 D कम्पित ।