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________________ २९० - धर्मरत्नाकरः- . [१४. १४६१1138) तत्रापि च परिमाणं ग्रामापणभवनपाटकादीनाम् । प्रविधाय नियतकालं करणीयं विरमणं देशात् ॥ १४*१ 1139 ) इति विरतो बहुदेशात्तदुत्थहिंसाविशेषपरिहारात् । तत्कालं विमलमतिः श्रयहिंसां विशेषेण ॥ १४*२ 1140) प्रत्यक्षदर्शिताल्लोभाल्लाभाद्वापि निवर्तते । परतों ऽशेन तेन स्यात्परिपूर्ण महाव्रतम् ॥ १५ 1141) प्रेष्यस्य संप्रयोजनमानयनं शब्दरूपविनिपातौ । क्षेपो ऽपि पुद्गलानां द्वितीयशीलस्य पञ्चेति ।। १५*१ है कि दिव्रत में जो देश की मर्यादा की जाती है वह अधिक प्रमाण में व जन्मपर्यन्त की जाती है किन्तु देशव्रत में जो मर्यादा की जाती है वह उस दिग्वत की मर्यादा को और भी संकुचित कर के सदा कुछ नियत काल - घडो, घंटा एवं दिन -दो दिन आदि - के लिये ही की जाती है । इसीका नाम द्वितीय गुणव्रत है ॥ १४ ॥ उसमें-दिग्वत में की गई उस मर्यादा में – भी किसी गाँव, दूकान, महल और मुहल्ला आदि के प्रमाण को कर के श्रावक के लिये नियत काल तक उस मर्यादित क्षेत्र के बाहिर जानेका नियम करना चाहिये - उसके आगे नहीं जाना चाहिये । इस प्रकार से वह देशवत नाम के उसी द्वितीय गुणव्रत का भी पालन करता है ॥ १४+१॥ इस प्रकार बहत -से क्षेत्र से विरत हआ-मर्यादित क्षेत्र के बाहिर बहत से क्षेत्र में न जानेवाला - निर्मल बुद्धि श्रावक उक्त क्षेत्र के बाहिर जाने से जो हिंसा की अधिकता उत्पन्न होनेवाली थी उसका परिहार हो जाने के कारण उस समय विशेषरूप से अहिंसा का आश्रय लेता है। (मर्यादा के बाहिर अहिंसा महाव्रती हो जाता है) ॥ १४२२॥ वह देशव्रती श्रावक मर्यादित क्षेत्र के बाहिर चूँकि प्रत्यक्ष दिखाये गये लोभ और लाभ से निवृत्त होता है, इसीलिये उतने अंशमें उस का अहिंसा महाव्रत परिपूर्ण होता है ।। १५ ॥ प्रेष्य सम्प्रयोजन, आनयन, शब्दविनिपात, रूपविनिपात और पुद्गलक्षेप ऐसे दूसरे शील के पाँच अतिचार हैं॥ १) प्रेष्यका प्रयोग - स्वयं अपने मर्यादित देश में रहकर कार्यवश उस के बाहर सेवक को अभीष्ट कार्य करने के लिये प्रेरित करना, २) आनयन- मर्यादा के बाहर न जाकर वहाँ से अभीष्ट पदार्थ मँगवाना, ३) शब्दविनिपात - स्वयं मर्यादा के भीतर रहकर उस के murarrrrrrrrrrrrror १४*१) 1 D बहुदेशाः । १५) 1 D° लाभादपि नि° । १५*१) 1 द्वितीयगुणव्रतस्य. 2 D पञ्चातीचाराः।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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