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-१४. १४]
- द्वितीयप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
1135) वणिज्यायै प्रयातानां द्वीपे ऽविरमतां दिशः । नाशोऽभूज्जीवितव्यादेः सुखं विरमतां महत् ॥ १३
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1136 ) ऊर्ध्व मधस्तिर्यक्च व्यतिक्रमः क्षेत्रवृद्धिराधानम् । स्मृत्यन्तरस्यं गदिताः पञ्चैते प्रथमशीलस्यै ॥१३*१
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1137 ) देशाद्विरामो ऽत्र समानमुक्तं हिंसादिभिः किंत्वधिकान्निकामम् । अहो इयत्ता'त्कलिताद्विशेषो नित्यं निवृत्तिः कथितं द्वितीयम् ॥ १४
जो व्यापारी दिशाओं से विरक्त न होकर - दिग्व्रत से रहित होते हुए व्यापार के लिये द्वीपान्तर में गये थे उनके जीवित आदि ( धनादि) का विनाश हुआ है । और इसके विपरीत जो लोग दिग्व्रत के धारक होकर अन्य द्वीप में नहीं गये थे उन्हें महान् सुख प्राप्त हुआ है ॥१३॥
प्रथम शील दिग्व्रत के पाँच अतिचार -
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ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम और तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधाम, ये पाँच इस प्रथम शील के अतिचार कहे गये हैं । ऊर्ध्व व्यतिक्रम - अज्ञान अथवा प्रमाद से पर्वत शिखर आदि उपरिम मर्यादा का उल्लंघन करना । अधोव्यतिक्रम - अज्ञान या प्रमाद से भूमिगृह व कुआँ आदि में नीचे मर्यादा से अधिक जाना । तिर्यग्व्यतिक्रम - तिरछे नगर आदि में मर्यादा से अधिक गमन करना, क्षेत्रवृद्धि - पूर्वादि दिशाओं की जो मर्यादा की थी उसमें वृद्धि करना । जैसे -पूर्व दिशा को यदि जाना है तो पश्चिम दिशा की मर्यादा को कम कर उसे पूर्वादि दिशा में प्रक्षिप्त करना । स्मृत्यन्तराधान - किसीने पूर्व दिशाका परिमाण
योजना किया था, परन्तु गमनकाल में उसे स्मरण नहीं रहा कि मैंने सौ योजनों का परिमाण किया है अथवा पचास योजनोंका । ऐसी अवस्था में यदि वह पचास योजन से आगे जाता है तो उसका वह व्रत दूषित होता है ॥ १३*१॥
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देश से विरत होना यह दिव्रत और देशव्रत दोनो में ही समान कहा गया है । इसी प्रकार उस से होनेवाली हिंसादि की निवृत्ति भी दोनों में समान कही गई है । विशेषता यह
१३*१) 1 D धरणम्. 2 D संख्याविस्मरणम् 3 पञ्च एते अतीचारा:. 4 दिग्विरति गुणस्य । (१४) 1 D मर्यादा. 2D विरमणं ।
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