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1131 ) प्रसिद्धम् -
- धर्म रत्नाकरः -
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[ १४. १०१
प्रविधाय सुप्रसिद्धैर्मर्यादां सर्वतो ऽप्यभिज्ञानैः ।
प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्यः कर्तव्या विरतिर विचलिता ।। १०१
1132 ) इति नियमित दिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्य । सकलासंयमविरहाद्भवत्यहिंसाव्रतं पूर्णम् ।। १०*२ 1133 ) देवसंघगुरुकार्य तो गर्म' दुष्यते न परतो ऽप्यगारिणाम् ।
लाभतस्तु महतो ऽपि यद्व्रतं खण्ड्यते सति गमे परत्र तत् ॥ ११ 1134 ) दिग्विराममनाचरतां जने आपदः समभवन्तिं दुरुत्तराः । तं पुनः परिपालयतां श्रियः स्युन्यवेदितरामिदमागमे ॥ १२
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नियम कर के अपने स्थान से उस नियमित प्रमाण तक ही दिशाओं और विदिशाओं में जानी तथा उसके आगे नहीं जाना, इसे पवित्र प्रथम - दिग्व्रत नामका - गुणव्रत जानना चाहिये ॥१०॥ अतिशय प्रसिद्ध अभिज्ञानों से - नदी - पर्वतादि रूप प्रसिद्ध चिन्हों से सब ओर मर्यादा कर के पूर्वादिक दिशाओं से विरति करनी चाहिये । अर्थात् - पूर्वादिक दिशाओं में उस की हुई मर्यादा से बाहिर नहीं जाना इसका नाम दिग्व्रत है । व्रती श्रावक को उसक पालन करना चाहिये ॥ १०१ ॥
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इस प्रकार से जो श्रावक उस मर्यादीकृत दिशाभाग के भीतर ही प्रवृत्ति करता हैउसके बाहर किसी प्रकार के व्यवहार को नहीं करता है- उसके की हुई मर्यादा के बाहिर सब प्रकार के असंग्रम का हिंसा का अभाव हो जाने से अहिंसा व्रत पूर्ण (अहिंसा महाव्रत ) होता है ॥ १०*२ ।।
यदि गृह में अवस्थित श्रावक देव, संघ और गुरु के कार्य से उस की हुई मर्यादा के बाहिर जाते हैं तो इससे उन का दिग्वत दूषित नहीं होता है । हाँ, यदि वे किसी अपने महान् लाभ की अपेक्षा से मर्यादा के बाहिर जाते हैं, तो उनका वह व्रत अवश्य खण्डित होता है ॥ ११ ॥
जो श्रावक दिग्विरति नामक इस व्रत का पालन नहीं करता है, उसे भयानक आपत्ति - यों का सामना करना पडता है और इसके विपरीत जो इसका पालन करते हैं उन्हें बहुतसा संपदायें प्राप्त होती हैं, ऐसा आगम में प्रचुरता से कहा गया है || १२ ||
१०*१) 1 D स्थानंः. 2 D पूर्वदिग्भ्यः सकाशात् । १० * २ ) 1 हिंसा अभावात्, D विनाशात् । ११) 1 गमने D देवादिकार्ये सीमोल्लङ्घनं क्रियमाणे सति दूषणं नास्ति । १२ ) 1 P°स्म भवन्ति 2 D भवेयु: 3 D कथितं ।