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________________ २८७ -१४. १० - द्वितीयप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1125) वार्ताकभक्षणासक्तो जघासं किल दर्दुरम् । रजन्या भोजने कश्चिंदित्येतच्छ्यते जनैः ॥ ५ 1126) अनस्तमितमाहात्म्यं ख्यातमष्टकथास्विति । ___ पूर्व तच्छीलनादासीत्सहदेवो ऽपि पाण्डवः ।। ६ 1127) विविच्येति सचेतोभिराचर्यमिदमादरात् ॥ 1128) सूक्ष्मजन्तुनिवहश्च खाद्यते रात्रिभोज्यत इति स्फुटं वचः। मानुषस्य च पशोश्च का कथाहर्निशं खलु समस्ततो भिदा ॥ ८ 1129) शीलानि संप्रकथितानि सुमानवानां त्रीण्यादिमान्यभिधया तु गुणवतानि । शिक्षावतान्यथ पराणि विशेषभाजीपाल्यान्यणुव्रतविवृद्धिकराणि नित्यम् ।। 1130) दिक्ष विदिक्ष च गमनं स्वस्थानात्संख्यया ततः परतः। विनिवृत्तिविज्ञेयं प्रथमं तु गुणव्रतं पूतम् ।। १० रात्रि में भोजन करते समय किसी मनुष्यने बैंगन के भक्षण में आसक्त होकर मेंढक को खा लिया था, ऐसा लोगों से सुना जाता है ॥ ५ ॥ रात्रिभोजन व्रत का माहात्म्य आठ कथाओं में प्रसिद्ध है । पूर्व समय में इस रात्रिभोजनत्याग व्रत के धारण करने से कोई ब्राह्मण अगले जन्म में सहदेव पाण्डव हुआ है। इस प्रकार विचार कर के सहृदय विद्वानों को उस रात्रिभोजनव्रत का आदर से पालन करना चाहिये ॥ ६-७ ॥ रात्रिभोजन में सूक्ष्म प्राणियों के समूह का भक्षण होता है, यह वचन स्पष्ट है। दिनरात खानेवाले मनुष्य और पशु के विषय में क्या कहा जाय ? अर्थात् रातदिन खाते रहने से मनुष्य में पशु से कुछ विशेषता नहीं रहती- ऐसे मनुष्य को पशु ही समझना चाहिये ॥ ८॥ सत्पुरुषों के लिये सात शोल कहे गये हैं। इन में प्रथम तोन को नाम से गुण व्रत और शेष चारको शिक्षाव्रत जानना चाहिये । ये सातों चूंकि पूर्वोक्त पाँच अणुव्रतों को वृद्धिंगत करनेवाले है, अतएव उन में विशेषता को प्राप्त श्रावक के लिये इन सात शीलों का निरन्तर पालन करना चाहिये ।। ९॥ पर्वादिक चार दिशाओं और आग्नेयादिक चार विदिशाओं में गमन के प्रमाण का ५) 1 P°वृन्ताक, बैंगण, D वृन्ताक. 2 भक्षितवान्. 3 मण्डूकम्. 4 D विप्रः। ७) 1 पुरुषः 2 D° राचार्य । ८) 1 भेदेन । ९)1 P°न्यभिषया, नाम्ना. 2 शिष्याव्रतानि. 3 पुरुषेण । १०)1 दिशासु ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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