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२८६ - धर्मरत्नाकरः -
[१४. २1121 ) तमीभवं भोजनमुत्सृजामि दिवानुतिष्ठामि तथापि रात्रौ ।
विवर्जनीयं किल पक्वमामं फलाद्युपादेयमितीष्टमेकैः ॥ २ 1122) वैद्य प्रणीतोषधमम्बु चान्यैस्ताम्बूलयुक्तं च परेतरैस्तत् ।
ताम्बूलमेवेति च हयंभाजां विज्ञैर्य थायोग्यमिदं विभाज्यम् ॥३ 1123) दिवसस्य सदाद्यन्ते द्वयं त्रयं वा विवयं घटिकानाम् ।
भोज्यं सदा निभोज्यं परत्र सूत्रं सतान्वेष्यम् ॥ ४ 1124) पूर्वाह्न देवगन्धर्वा मध्याह्न सर्वदेवताः।
__ अपराल्ले तु पितृणां निशायां प्रेतभोजनम् ॥४*१
मैं रात में बनाये हुए आहार को छोडता हूँ तथा दिन में ही पकाता या भोजन करता हैं । तो भी रात्रि में भोजन को तो छोडना चाहिये, पर पके हुए और कच्चे भी फल रात में ग्रहण किये जा सकते हैं, यह कुछ विद्वानों को अभीष्ट है ॥ २ ॥
___ कितने ही विद्वानों को गृहस्थों के लिये रात में वैद्य के द्वारा निर्दिष्ट औषधि और पानी का तथा अन्य विद्वानों को उस औषधि और पानी के साथ ताम्बूल(पान) का भी ग्रहण करना अभीष्ट है । कुछ विद्वान् गृहस्थों के लिये रात में केवल तांबूल का ग्रहण करना ही अभीष्ट बतलाते हैं। विद्वानों को यथायोग्य उस सब का विचार करना चाहिये ॥३॥
दिन में कब भोजन करना चाहिये ?
रात्रिभोजनत्यागी सज्जन को सदा दिवस के आदि और अन्त में दो अथवा तीन घडी मात्र काल को छोडकर भोजन करना चाहिये । (अर्थात् – सूर्योदय होने के अनन्तर दो अथवा तीन घड़ियोंके बीत जानेपर भोजन करना चाहिये । तथा सूर्यास्त होने के दो या तीन घडी पूर्व भोजन कर लेना चाहिये । तथा रात्रि में भी क्या भक्ष्य है और क्या अभक्ष्य है इत्यादि) अन्य बातों के सम्बन्ध में आगम को देखना चाहिये ॥ ४ ॥
रात्रिभोजन त्याग के गुण को न जानने वाले भी ऐसा कहते हैं -
पूर्वाह्न - दिवस के - पूर्व भाग में देव और गन्धर्व भोजन करते हैं, मध्याह्न काल में सब देवता भोजन करते हैं, अपराह्न - दोपहरके पश्चात् – पितरों का भोजन होता है । और रातमें प्रेतों का भोजन होता है । अर्थात् प्रेत - अधमव्यन्तर - भोजन करते हैं ॥४*१॥
२) 1 रात्रिभवम्, D रजनीकृतम् । ४) 1 D विचारणीयम् । ४*१) 1 PD ° अनस्तमितगुणानभिज्ञैरप्युक्तम्-पूर्वाहे.. , D परसमयवाक्यम् ।