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- द्वितीयप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1116) यद्येवं तहि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहारः।
भोक्तव्यं तु निशायां नेत्थं नित्या भवति हिंसा ॥१*३ 1117) नैवं वासरभुक्तेर्भवति हि रागो ऽधिको रजनिभुक्तौ ।
अन्नकवलस्य भुक्तेर्भुक्ताविव मांसकवलस्य ॥ १७४ 1118 ) अर्कालोकेन विना भुजानः परिहरेत्कथं हिंसाम् ।
अपि बोषिते प्रदीपे भोज्यजुषां मूक्ष्मजन्तूनाम् ॥ ११५ 1119 ) किं वा बहुमलपितैरिति सिद्धं यो मनोवचनकायैः ।
परिहरति रात्रिभुक्ति सततमहिंसामसौ पाति ।। १७६ 1120) अन्यच्च
समृगोरगसारङगं ससुरासुरमानुषम् । आ मध्याह्नात्कृताहारं भवतीति जगत्त्रयम् ॥ १*७
इस पर कोई शंका करता है कि यदि ऐसा है तो दिन में उस भोजन का परित्याग कर के रात्रि में ही उसे करना चाहिये, इस प्रकार से वह रागादिरूप हिंसा निरन्तर नहीं होगी। इस शंका के उत्तर में कहा जा रहा है कि ऐसा करना योग्य नहीं है । क्योंकि, जिस प्रकार अन्न के ग्रास के खाने की अपेक्षा मांसके ग्रास के खाने में अधिक अनुराग हुआ करता है उसी प्रकार दिन में भोजन करने की अपेक्षा रात्रिभोजन में उस अनुराग की प्रचुरताकी ही संभावना अधिक है । दूसरी बात यह है कि दिन में सूर्य का प्रकाश रहता है, जो रात्रि में संभव नहीं है । और तब वैसी अवस्था में जो उस सूर्यप्रकाश के विना रात्रि में भोजन करता है वह भला उस हिंसा का परिहार कैसे कर सकता है- उसका परिहार करना असम्भव है । यदि यह कहा जाय कि दीपक के रख लेनेपर प्राणीहिंसाका परिहार हो सकता है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि दीपक के रहने पर भी भोज्य पदार्थों का सेवन करने वाले - उन में आकर पडे हुए - सूक्ष्म जीवों को हिंसाका परिहार भला कैसे किया जा सकता है ? दीपक के अल्प प्रकाश में उन सूक्ष्म जन्तुओं की हिंसा का परिहार करना शक्य नहीं है । बहुत कहने से क्या होनेवाला है ? इन सबका निष्कर्ष यही है कि जो सत्पुरुष मन, वचन और कायसे उस रात्रिभोजन का परित्याग करता है वह निरन्तर अहिंसा व्रत का पालन करता है ॥ १*३-६॥
और भी
मृग, सर्प, सारङग, देव, दैत्य और मनुष्यों से युक्त यह जगत्त्रय मध्याह्नकालपर्यंत आहार ग्रहण करता है ॥ १*७ ॥
१*५) 1 P° जीविनाम् । १*६) 1 रक्षति ।