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[१४. चतुर्दशो ऽवसरः]
[ द्वितीयप्रतिमाप्रपञ्चनम् ] 1113) अहिंसाव्रतरक्षार्थ मूलव्रतविशुद्धये ।
निशायां वर्जयेद्भुक्तिमिहामुत्रं च दुःखदाम् ॥ १ 1114) रात्रौ भुजानानां यस्मादनिवारितं भवति हिंसा ।
हिंसाविरतैस्तस्मात्त्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि ॥ १*१ 1115) रागायुदयपरत्वादनिवृत्ति तिवर्तते हिंसाम् ।
रात्रिदिवमाहरतः कथं हि हिंसा न संभवति ॥ १*२
उपर्युक्त अहिंसा व्रत के संरक्षण तथा मूलगुणों की निर्मलता के लिये रात्रि में आहारका त्याग करना चाहिये, क्योंकि वह इस लोक और परलोक दोनों में ही दुःखदायक है ॥१॥
जो लोग रात में भोजन करते हैं,उनको अनिवार्य हिंसा का दोष लगता है। इसलिये हिंसा से विरक्त हुए श्रावकों को उस रात्रि भोजन का परित्याग करना चाहिये ॥११॥
रात्रिभोजन से जो निवृत्ति-विमुखता-नहीं होती है वह रागादि की उत्पत्ति के अधीन रहने के कारण ही नहीं होती है । इसीलिये वह रात्रिभोजन की अनिवृत्ति (आसक्ति) हिंसा का अतिक्रमण नहीं करती है- वह हिंसाके ही अन्तर्गत है, उससे भिन्न नहीं है । कारण यह कि जो रात-दिन खाता रहता है उसके हिंसा की सम्भावना कैसे न होगी ? ( अर्थात् उस के भावहिंसा तो निश्चित होती ही है, साथ में द्रव्यहिंसा की भी संभावना रहती ही है )॥१२॥
१) 1 अष्टमूलगुण. 2 D अनुभवे । १*२) 1 भक्षतः ।