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२७६ - धर्मरत्नाकरः -
[१३. २५*१1082 ) उभयपरिग्रहवर्जनमाचार्याः सूचयन्त्यहिंसेति ।
द्विविधपरिग्रहवहनं हिंसेति जिनप्रवचनज्ञाः ॥ २५*१ 1983) हिंसापयित्वात् सिद्धा हिंसान्तरङगसंगेषु ।
बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयाति मूच्चैव हिंसात्वम् ॥ २५*२ 1084) एवं न विशेषः स्यादुन्दुररिपुंहरिणशावकादीनाम् ।
नैवं भवति विशेषस्तेषां मूर्छाविशेषेण ॥ २५*३ 1085 ) हरिततृणाकुरचारिणि मन्दा मृगशावके भवति मूर्छा ।
उन्दुरनिकरोन्माथिनि मार्जारे जायते तीत्रा ॥ २५*४ 1086 ) निर्बाध संसिध्धेत्कार्यविशेषो हि कारणविशेषात् ।
औधस्यखण्डयोरिह माधुर्य प्रीतिभेद इव ॥ २५*५
को जानकर, जो क्षेत्र व वास्तु आदि रूप दस प्रकारका बाह्य परिग्रह है उस सभी को धैर्यसन्तोष-के संवर्धनार्थ नियमित प्रमाण कर के ही सदा ग्रहण करना चाहिये-किये गये प्रमाण से कभी अधिक की इच्छा नहीं करना चाहिये ॥ २५ ॥
जिनागम के ज्ञाता आचार्य उपर्युक्त दोनों प्रकार की (बाह्याभ्यन्तर) परिग्रह के त्याग को अहिंसा और उसी दोनों प्रकारकी परिग्रह के धारण करने को हिंसा कहते हैं ॥२५*१॥
मिथ्यात्व व वेद आदि जो अन्तरंग परिग्रह हैं वे चूंकी उस हिंसा के पर्यायस्वरूप हैं, इसलिये उन में हिंसा है ही। तथा बहिरंग परिग्रहों में जो मूर्छा-ममत्वरूप परिणाम-उत्पन्न होता है वही निश्चय से हिंसापने को प्राप्त होता है ।। २५*२॥
इसपर शंकाकार कहता है कि ऐसा मानने पर तो चूहों के शत्रुभूत बिलाव और हरिण के बच्चे आदिमें कोई विशेषता नहीं रहेगी, क्योंकि, बिलाव के लिये जिस प्रकार चूहों के विषय में मुर्छा रहती है उसी प्रकार हरिण के बच्चे को घास के विषय में मूर्छा रहती है। इस शंका के उत्तर में यहाँ यह कहा गया है कि ऐसी बात नहीं है। क्योंकि, उनमें मूर्छाको विशेषतासेउसके तर-तम-भावसे - विशेषता होती है। जैसे-हरे घास के खानेवाले हरिण के बच्चे में वह मूर्छा मन्द-अतिशय होन-होती है, परन्तु वही मूर्छा चूहों के समूहका संहार करनेवाले बिलाव में अधिक होती है । कारण यह कि कारण की विशेषता से कार्य को विशेषता सिद्ध ही है,उसमें किसों प्रकार की बाधा नहीं आती है। उदाहरणार्थ-जैसे दूध और खाँड (एक प्रकारको शक्कर) में मधुरताविषयक रागकी विशेषता-इसीको स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि चूंकि दूध में
२५*१) 1 बाह्याभ्यन्तरः, सचित्ताचित्त. 2 D वदन्ति । २५*२) 1 हिंसा सिद्धा । २५*३) 1मार्जारः, D विराल [ बिडाल]। २५*४) 1 मारके । २५*५) 1 P क्षीर, दुग्ध, D दुग्धखण्डयोः ।