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-१३. २५*१०] - अस्तैयब्रह्मपरिग्रहविरतिव्रतविचार: - 1087) माधुर्यप्रीतिः किल दुग्धे मन्दैव मन्दमाधुर्ये ।
सैवोत्कटमाधुर्ये खण्डे ऽप्यपदिश्यते तोत्रा ॥ २५*६ 1088 ) तत्त्वार्थश्रद्धाने निर्मुक्तं प्रथममेव मिथ्यात्वम् ।
___ सम्यग्दर्शनचौराः प्रथमकषायाश्च चत्वारः ॥२५*७ 1089 ) प्रविहाय च द्वितीयान् देशचरित्रस्य संमुखों जातः ।
नियतं ते हि कषाया देशचरित्रं निरुन्धन्ति ।। २५*८ 1090) निःशक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरङ्गसंगानाम् ।
कर्तव्यः परिहारो मार्दवशौचादिभावनया ॥ २५*९ 1091) बहिरङ्गादपि संगाद्यस्मात्प्रभवत्यसंगमो ऽनुचितः ।
परिवर्जयेदशेषं तमचित्तं वा सचित्तं वा ॥ २५*१०
मिठास कम मात्रामें हुआ करता है, अतएव उसमें मधुरताविषयक प्रीति साधारण ही हुआ करती है। परन्तु खाँड में उस मधुरताके अधिक मात्रा में अवस्थित रहने से तद्विषयक प्रीति उसमें अधिक कही जाती है ॥ २५*३-४-५-६ ॥
तत्त्वार्थ के श्रद्धान स्वरूप सम्यग्दर्शन में मिथ्यात्वका त्याग प्रथमतः किया गया है। तथा अनन्तानुबन्धी क्रोधादिक चार कषायें भी चूंकि उस सम्यग्दर्शनको लूटनेवाली हैं-उसे प्रादुर्भूत नहीं होने देती हैं, इसीलिये मिथ्यात्व के साथ उन चारोंका भी परित्याग कराया गया है ॥२५*७॥
द्वितीय कषाय-स्वरूप अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ को छोडकर प्राणी देशचारित्र के अभिमुख हो जाता है । कारण यह कि वे कषाय निश्चय से देशचारित्र को रोका करते हैं ॥ २५*८॥
(देशचारित्रके प्राप्त कर लेने पर तत्पश्चात् ) अपनी शक्ति के अनुसार अवशिष्टसर्व-प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि स्वरूप-अन्तरंग परिग्रहों का मार्दव, शौच एवं आर्जवादिक भावना के द्वारा त्याग करना चाहिये ॥ २५*९ ॥
___ बाह्य परिग्रहसे भी चूंकि अनुचित असंयम होता है विषयतृष्णा आदि बढती है, इसीलिये उस अचित्त-निर्जीव धनधान्यादि-तथा सचित्त-दास,दासी व पशु आदि (सजीव)भेदस्वरूप समस्त बाह्य परिग्रह का भी त्याग करना चाहिये ।। २५*१० ॥
__२५*६) 1 कथ्यते । २५*७) 1 त्रिभेदम् । २५*८) 1 P°अप्रत्याख्यानकषायान्. 2 D° सन्मुखो. 3 PD देहिकषाया, देही जीव, D ते अप्रत्याख्यानाः । २५*१०) 1 D अशुद्धपरिणामः ।