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२७४ -धर्मरत्नाकरः
[ १३. २४1073) ते जीवन्तु चिरं त एव कृतिनस्ते धर्मरत्नाकरा
स्ते ऽध्यात्मप्रतिबिम्बदर्पणतलं ते विश्वपूजास्पदम् । गीर्वाणासुरशेषमानुषपशुप्रक्षोभलीलायितें
रामार्धेक्षितवायुभिर्नरवरा नान्दोलिता ये क्वचित् ॥ २४ 1074 ) या मूर्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः ।
मोहोदयादुदीर्णा मूर्छा तु ममत्वपरिणामः ॥ २४* १ 1075) मूर्छालक्षणकरणात्सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य ।
सग्रन्थो मूर्छावान् विनापि किल शेषसंगेभ्यः ॥ २४*२ 1076) यद्येवं भवति तदा परिग्रहो न खलु को ऽपि बहिरङ्गः ।
भवति नियतं यतो ऽसौ धत्ते मूर्छानिमित्तत्वम् ।। २४*३
जो पुरुष श्रेष्ठ देव, असुर (दानव ), शेषनाग, मनुष्य और पशु-सिंहादि - के प्रक्षोभ (उपद्रव) की लीला को करनेवाले स्त्रियों के अर्ध ईक्षित - कटाक्ष-रूप, वायु के द्वारा कहीं पर भी नहीं हिलाये जाते हैं-उद्विग्न नहीं किये जाते हैं- वे धर्मरूप रत्नों की खानिस्वरूप पुण्यशाली पुरुष चिरकाल तक जीवित रहें। वे महात्मा अध्यात्म ज्ञान के प्रतिबिम्ब के आश्रयभूत दर्पणतल के समान होते हुए समस्त लोकों से पूजनीय होते हैं ॥ २४ ॥
यह जो मूर्छा है उसे ही यह परिग्रह जानना चाहिये। वह मूर्छा मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ करती है, जो ममत्व परिणामस्वरूप है। (अभिप्राय यह है कि मोहनीय कर्म के उदय से जो बाह्य धनधान्यादि पदार्थों के विषय में 'ये मेरे हैं और मैं इनका स्वामी हूँ' इस प्रकार का ममेदभाव हुआ करता है उसी का नाम परिग्रह है। मूर्छा यह उक्त परिग्रह का समानार्थक नाम है ) ॥ २४*१॥
परिग्रह का मी लक्षण करने से उस मूर्छा के साथ परिग्रह की 'जहाँ सूर्छा है वहां परिग्रह होता ही है,' इस प्रकार की व्याप्ति घटित होती ही है । इस से यह सिद्ध है कि जो ममत्व बुद्धिस्वरूप उस मूर्छा से संयुक्त होता है वह धनधान्यादिक शेष परिग्रह के न होने पर भी सग्रन्थ-परिग्रहवाला होता है ॥२४*२॥
यहां कोई शंका करता है कि यदि केवल ममत्वपरिणाम को ही परिग्रह माना
२४) 1 नाग, 2 D कटाक्षैः. 3 PD अर्धकटाक्ष वातैः. 4 नराणां श्रेष्ठाः । २४*१) 1 D परिग्रहः २४*२) 1 कस्मात्. 2 कस्य । २४*३) 1 प्रधानः ।