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-१३. २३१] - अस्तेयब्रह्मपरिग्रहविरतिव्रतविचारः -
२७३ 1069 ) किं चासन्' भुवि युद्धानि बहूनि वनिताकृते ।
भारतादीनि लोकानां गतानि त्रासहेतुताम् ॥ २१ 1070 ) एकपत्तनभवा' हि वाणिजा द्वौ तु तत्र सहजानुरागतः ।
दुःखमापतुंरथेतरः शुचिस्तत्स्वसापिं च स चादिसत्सुखम् ।। २२ 1071 ) इत्यब्रह्ममहादुःखपारमीप्सुः स्वभावतः ।
सर्वथा विरति कश्चित्प्रपद्येत सुभावनः ॥ २३ 1072) प्रसिद्धम्
ऐश्वयौदार्यशौण्डीर्यधैर्यसौन्दर्यवीर्यताः । लभेताद्भुतसंचाराच्चतुर्थव्रतपूतधीः ॥ २३*१
संसार में स्त्रियों के लिये भारतादिक अनेक युद्ध हुए व उन के कारण लोगों को बहुत दुःख सहना पडा है ॥ २१॥
किसी एक गाँव में कुछ वैश्य रहते थे। उनमें से जिन दो वैश्यों को अपनी बहिन पर अनुराग उत्पन्न हुआ जिस से वे तो दुःखको प्राप्त हुए और तीसरा भाई, जो कि पवित्र विचारवाला था, वह और उसकी बहिन दोनों सुखी हुए हैं ॥ २२ ॥
____ इस प्रकार जो कोई महापुरुष स्वभाव से उस अब्रह्मजनित महादुःख से पार होने की इच्छा करता है वह उसकी उत्तम भावनाओं का चिन्तन करता हुआ उससे विरति को प्राप्त होता है- उसका परित्याग करता है ॥२३॥
यहाँ यह प्रसिद्ध है -
जिसकी बुद्धी इस चौथे व्रत से पवित्र हुई है ऐसा पुरुष ऐश्वर्य, उदारता, दानशूरता, धैर्य, सौन्दर्य, सामर्थ्य तथा अद्भुत संचार-दुर्गम स्थानों में विहार-आदि गुणों को प्राप्त करता है ॥ २३* १॥
२१) 1 बभूवुः. 2 D कारणाय । २२) 1 P°धवा, D वणिकद्वयः एकपत्नीरतः दुःखं प्राप. 2 बहवः.3 वाणिजेषु मध्ये. 4 0 प्रापतुः. 5 अपरः कश्चित् वाणिजः, Dअरागी तृतीयः स च सुखं प्राप. 6 तस्य भगिन्यपि । २३) 1 D स्वस्य स्वस्मिन् वा भावना यस्य स्वभावनः . 2 D °शुभावन:, शुभमवतीति शुभावनः, शुभरक्षक इत्यर्थः ।
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