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________________ २७२ -धर्मरत्नाकरः - [१३. १४०१1065) परस्त्रीसंगमानङ्गक्रीडान्योपयमक्रियाः । तीव्रता रतिकतव्ये इन्युरेतानि तद्व्रतम् ॥ १८*१ 1066) तदुक्तम् मद्यं धूतमुपद्रव्यं तौर्यत्रिकमलंक्रिया । मदो विटा वृथाट्येति दशधानङ्गजो गणः ।। १८*२ 1067) नवधाप्यनेकधा वा ब्रह्मोक्तं मुक्तसकलरागस्य । समयेऽत्र तु स्वरूपं स्थूलब्रह्मवतस्योक्तम् ॥ १९ 1068 ) राजश्रेष्ठिप्रियासक्तो मन्त्रिपुत्रो ऽत्र जन्मनि अवापं नीडजादित्वं प्रेत्यापदुःखमुद्धतम् ॥२० वाली) तथा रक्षा-धनादि के संरक्षण-उपार्जन और सत्क्रिया आदि- जिनपूजनादि-सब ही क्रियायें नाशको प्राप्त होती हैं । इसलिये बुद्धिमान मनुष्यों को अनेक दोषसमूहों के जनक होने से परित्याग के योग्य उस काम का सेवन शरीर में उत्पन्न हुए संताप को नष्ट करने के लिये आहार के समान अनासक्तिपूर्वक ही करना चाहिये ॥ १८ ॥ परस्त्रीसेवन करना, योनि और लिंग के विना अन्य प्रकार से कामक्रीडा करना, अपनी कन्या और पुत्र के सिवाय अन्य किन्हीं का विवाह करना और काम सेवन में अत्यासक्ति रखना ऐसे कार्य-पाँच अतिचार-उस ब्रह्मचर्य व्रत को नष्ट करते हैं ॥ १८* १ ।। कहा भी है मदिरापान, जुआ खेलना, उपद्रव्य-कामोत्तेजक औषधादिक, तौर्यत्रिक-वाद्य, गायन और नृत्य-शरीर की सजावट, इन्द्रिय उन्मत्तता, व्यभिचारी जन की संगति और व्यर्थ इधर उधर धूमना यह काम से उत्पन्न होनेवाला दस प्रकारका गण हैं ॥ १८*२॥ आगम में मन, वचन, काया और कृत, कारित, अनुमोदना, इन के परस्पर संयोगरूप नो अथवा अनेक भेदों से जो ब्रह्मचर्य कहा गया है वह सभस्त राग से रहित -ब्रह्मचर्य महाव्रत के धारक-साधु के लिये कहा गया है। परन्तु यहाँ स्थूल ब्रह्मचर्य व्रत का स्वरूप कहा गया है। उसका परिपालन गृहस्थ किया करता है ।। १९॥ .. राजश्रेष्ठी की पत्नी में आसक्त हुआ मंत्री का पुत्र कडारपिंग इस जन्म में पक्षीकिंजल्प पक्षी-आदि की अवस्था को और परलोक में-नरक में- जाकर घोर दुःख को प्राप्त हुआ ॥२०॥ १८*१) 1 इत्वरिका परिगृहीताऽपरिगृहीता द्वेऽत्र, D परिगृहीता अपरिगृहीता. 2 करमैथुनादि. 3 पर विवाहकरण. 4 तीव्रता कामाभिनिवेशे. 5 D कुंच नाडि । १८*२) 1 PD°अपद्रव्यम्, D चोरी. 2 वाद्यनाटयगीतम्. 3 D अलंकाराः. 4 PD वृतायेति । १९) 1 जिनशासने उपासके वा। २०) 1 प्राप. 2 पक्षिपञ्जरादिबन्धनम्, D पक्षी भूत्वा पुनः दुःखं प्राप. 3 मृते 1
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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