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- अस्तेय ब्रह्मपरिग्रहविरतिव्रतविचारः -
1044) ज्ञातीनामत्यये वित्तमत्तमपि कल्प्यते ' । जीवतां तु निदेशेनं व्रतक्षतिरतो ऽन्यथा ।। ४* १ 1045 ) यदर्जितं न्याय व ठेन सन्तः परं प्रहृष्यन्ति धनेन येन । कुलं महार्थेन सुनुवं ग्रहीतुमिष्टं तद्गारिणां तु ॥ ५ 1046 ) रिक्थं निधिनिधानोत्थं न राज्ञो ऽन्यस्य युज्यते । दायादो मेदिनीपतिः ।। ५* १
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स्वस्थ
1047 ) रत्नरत्नागरत्नस्त्रीरत्नाम्बरविभूतयः ।
1048 ) प्रतिरूपव्यवहारास्तेने नियोगास्तदाहृतादानम् राजविरोधातिक्रमहीनाधिकमानकरणे च ॥ ६
भवन्त्यचिन्तिताः पुंसामस्तेयं येषु निर्मलम् ।। ५२
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कुटुम्ब जनों की मृत्यु हो जानेपर न दिये हुए भी उनके धन का ले लेना योग्य
है । यह अवश्य है कि उनके जीवित रहते उस धन को उन की आज्ञा के अनुसार ही ग्रहण करना योग्य है, अन्यथा इसके विपरीत अचौर्यव्रत का नाश होता है ॥ ४* १ ॥
जो धन न्यायसे कमाया गया है, जिससे सत्पुरुष अतिशय हर्षित होते हैं, तथा जिस 'समान हर्ष को प्राप्त - समृद्ध या सुशोभित - होता है, उसी को अभीष्ट होता है ॥ ५ ॥
निधि और निधान - भाण्डार या भूमि आदि से उत्पन्न हुए धन का ग्रहण करना राजा को छोड़कर अन्य किसी के लिये योग्य नहीं है। कारण इसका यह है कि ऐसे अस्वामिक लावारिस - धन के ग्रहण करने का अधिकारी यहाँ राजा हुआ करता है ॥ ५*१ ॥
महान् धन से कुल उत्तम पुत्र धन का ग्रहण करना गृहस्थों
जिन महापुरुषों में उस निर्मल अचौर्यव्रत का सद्भाव होता है, उनको रत्न, रत्नांग —सुन्दर शरीर-श्रेष्ठ स्त्री और रत्नमय वस्त्र आदि विभूतियाँ विना विचार के ही प्राप्त हुआ करती हैं ।। ५* २ ।
प्रतिरूप व्यवहार, स्तेननियोग, तदाहृतादान, राजविरोधातिक्रम और हीनाधिकमानकरण, ये अचौर्यव्रत के पाँच अतिचार हैं ।
४* १ ) 1 गृहघते. 2 आदेशेन । ५ ) 1 धनम् 2 शोभनपुत्रेण । ५*१) 1 PD द्रव्यम्. 2 PD द्रव्यस्य. 3 गृ[]हीता. 4 D राजा । ५* २ ) 1 येषां पुंसाम् 2 PD अचौर्यव्रतम्. 3पुरुषेषु । ६ ) 1 बौर्य, D चौरसंसर्ग . 2 चौर्यस्थानीतम् ।