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________________ २६८ - धर्मरत्नाकरः - - पञ्चास्तेयव्रतस्यातिचारा इत्युपस्कारः । 1049 ) हस्तिनागनगरे सुयोधनो मन्त्रिणा च नृपतिः पुरोधसा । आत्मकोशहरणात्पदच्युतः सत्यभूर्ति रपरार्थगाद्धर्चतः ॥ ७ 1050 ) वारिधर्मनगरे च नैगमेः स्त्रं परस्य पतितं परित्यजन् । कीदृशीं न समवापदुन्नति ढौकयंच किल धर्मभूपतेः ॥ ८ 1051 ) त्यागिनों गृध्नवश्चैवं सुखदुःखोपभोगिनः । 2 श्रूयन्ते न कियन्तोऽन्ये पररायो जिनागमे ॥ ९ 1052 ) अदत्तः पररास्त्याज्यस्ततः कृत्याकलत्रवत् । न्यायागतमपि ग्राहचं कल्प्यं स्वार्थपरायणैः ॥ १० [ १३. ७ १) प्रतिरूपक व्यवहार - अधिक मूल्यवाली वस्तु में उसकेस मान किसी दूसरी अल्पमूल्यवाली वस्तु को मिलाकर बेचना । जैसे- धीमें चर्बी मिलाकर बेचना | २ ) स्तेननियोगदूसरे को चौर्यकर्म के लिये प्रेरित करना या स्वयं चोरी करते हुए पुरुष की अनुमोदना करना । ३) तदाहृतादान - चोरी करके लाये हुए सोना व चाँदी आदि का ग्रहण करना । ४) राजविरोधातिक्रम- राजकीय नियमों का उल्लंघन करके क्रयविक्रयादि करना । ५ ) हीनाधिकमानकरण - देने लेने के बाँटों को निश्चित प्रमाणसे होन और अधिक रखना । इस प्रकार पाँच अतिचार उस अचौर्याणुव्रत को मलिन करनेवाले हैं । यहाँ श्लोक में 'ये पाँच अचौर्याणुव्रत के अतिचार हैं, इतने अंश की अनुवृत्ति ग्रहण करना चाहिये ॥ ६ ॥ हस्तिनाग नगर में सुयोधन राजाने मंत्री और पुरोहित के साथ अपने कोश का अपहरण किया। इससे उसे राज्यपद भ्रष्ट होना पडा । तथा सत्यभूति ब्राह्मण को भी दुसरों के धन में अतिशय लुब्ध रहने के कारण अपने पुरोहितपदसे भ्रष्ट होना पडा || ७ || उसके विषय में TURAS वारिधर्मे नगर में जिस वैश्यने गिरे हुए धन का परित्याग किया था मुग्ध नहीं हुआ था वह धर्मराजा के द्वारा उपस्थित की गई कौनसी उन्नति को नहीं प्राप्त हुआ है ? (अर्थात् उसे धर्मराजा के द्वारा अतिशय लाभ हुआ है ) || ८ || - दूसरे के धन का परित्याग कर के सुख का अनुभव करने वाले तथा लोभ धारण कर के दुख का अनुभव करनेवाले कितने अन्य जनों की कथायें जिनागम में नहीं सुनी जाती हैं ? ॥ ९ ॥ इसलिये अपने प्रयोजन को सिद्ध करनेवाले सज्जनों को दुष्ट स्त्री के समान न दिये हुए ७ ) 1 दृष्टान्तः, Dराज्ञ:. 2 मन्त्री 3 लोभतः, D अर्थ लाम्पट्यात् । ८ ) 1 वनिक: [ वणिक् ], Dश्रेष्ठी. 2 PD परद्रव्यम् 3PD ° धर्मभूपतिः । ९ ) 1 त्यक्तवन्तः 2 गृहीतवन्तः 3 कथंभूताः, सुखदुःखोपभोगिनः. 4 अन्ये कियन्तोऽपि किं न श्रूयन्ते अपि तु श्रूयन्ते. 5 परद्रव्याणि, D परद्रव्यस्य 6 क्व श्रूयन्ते, जिनागमे । १०) 1 PD परद्रव्यम्. 2 अकलत्रव्याजवत्, D अन्यस्त्री. ३ योग्यं द्रव्यम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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