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- अहिंसासत्यव्रतविचार:
यद्वद्यद्रचयति परे यो हि कालुष्यमज्ञ - स्तद्वत्तद्वत्प्रथमममुनास्यैव नाड्यः समस्ताः । संसिध्यन्ते दहति दहनो यत्समुत्थस्तमादौ पश्चादन्यं प्रदहति नवेति प्रियोक्तिः परे स्यात् ॥४८ 1031 ) दोषेग्रासाभ्यासाद्विषूचिकावन्तिं मनुजचेतांसि । प्रियवाक्यौषधमन्त्रैविदधति विरुजानि सद्याः ॥ ४९ 1032 ) हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकल वितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनु वदनं भवति नासत्यम् ॥ ४९*१ 1033 ) भोगोपभोगसाधनमात्रं सावद्यमक्षमा मोक्तुम् ।
ये ते विशेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुञ्चन्तु ॥ ४९*२
1034) अनन्तो वाग्विलासो यः स ज्ञेयः परमागमात् । सत्यासत्यं व्रतं तूक्तमुपयुक्त॑मगारिंणाम् ।। ५० ।।
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अज्ञानी मनुष्य जैसे जैसे दूसरे के विषय में कलुषता को उत्पन्न करता है वैसेही इससे उस की सब नाडियाँ ( ? ) सिद्ध होती हैं। ठीक है - जिस से अग्नि उत्पन्न होती है उसे वह प्रथमतः जलाती है । तत्पश्चात् दूसरों को वह जलाये भी अथवा नहीं भी । इसीलिये दूसरों के साथ प्रिय भाषण करना चाहिये ॥ ४८ ॥
सज्जनरूपी वैद्य दोषरूपी आहार के अभ्यास से विषू ( सू )चिका रोग से ग्रस्त हुए मनुष्यों के चित्तों को प्रियवचनरूपी औषध और मन्त्रों से रोगरहित करते हैं ॥ ४९ ॥
जितने भी असत्य भाषण हैं, उनका कारण चूंकि प्रमादयुक्त योग निर्दिष्ट किया गया है, अतएव 'अमुक आचरण त्याज्य है' ऐसा त्याग का उपदेश कष्टदायक होता हुआ भी असत्य नहीं हैं, क्योंकि उसका कारण प्रमत्तयोग नहीं है ॥ ४९* १ ॥
जो भोग और उपभोग के कारण मात्र सावद्य वचन के छोड देने में असमर्थ है वे अन्य समस्त विशेष असत्य भाषण को सर्वदा के लिये छोड दें ॥ ४९२ ॥
जो वचन का विलास - विस्तार - अपरिमित है उसका स्वरूप परमागम से जानना चाहिये । मैंने यहाँ गृहस्थों के लिये उपर्युक्त सत्यासत्य व्रत का यहाँ वर्णन किया है ॥ ५० ॥
४८) 1 D बन्धनम् । ४९ ) 1 D परदोष. 2 वमनम् अजीर्णम् । ४९* १ ) 1D मुहुर्जल्पनम् । ४९*२) 1 D त्यजन्तु असत्यम् । ५० ) 1 युक्तम् ।