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________________ २६२ -धर्मरत्नाकरः - [१२. ४४1026) राजद्विष्टामन्यरामानुबन्धां स्वाम्यारम्भमोज्झितां लोकवाम् । स्वाचारस्थः संकथां तादृशों नो कुर्यादन्यां सर्वतः प्रीतिमिच्छन् ॥ ४४ 1027 ) सा मिथ्यापि न 'गीमिथ्या या गुर्वादिप्रसादिनी । मियोक्ता चाटुकारोक्त्या स्नेहगर्भगिरा समम् ॥ ४५ 1028 ) स्वं न स्तुयानाप्यसतो गुणांश्च प्रतारयेनापि पर न दुष्यात् । सतो गुणानित्थमथो वितन्वन् समर्जयेत्रीचतमं हि गोत्रम् ॥ ४६ 1029 ) इति विलोमवादी स्यादुच्चगोत्रगमी पुमान् । यत्परस्य हितार्थी ना स्वस्यैव हितकारकः ॥ ४७ - उसने ऐसा कहा है या किया है, इस प्रकार के किसी अन्य की प्रेरणा पाकर वचन के कारण भूतलेखके लिखने का नाम कूटलेखन है । ५ मुधासाक्षिपदोक्ति - व्यर्थ साक्षी देना, इन्हें सत्याणवत के विघातक होने से छोड देना चाहिये) ॥४३*१।। . समस्त लोगों की प्रीति के अभिलाषी गृहस्थ के लिये अपने आचार में स्थित रहते हुए राजा के विषय में द्वेष को बढानेवाली, परस्त्री से संबन्ध रखने वाली, स्वामी के आरम्भ से रहित तथा अन्य भी उसी प्रकार की लोकनिषिद्ध - निन्द्य-कथाको - वार्तालाप को - नहीं करना चाहिये ॥ ४४ ॥ गुरु आदि को प्रसन्न करने वाला जो स्तुतिरूप - वचन किसी प्रिय व्यक्ति के द्वारा बोला जाता है, वह असत्य हो कर भी खुशामदी वचन व स्नेह से परिपूर्ण वाणी के समान असत्य नहीं होता है ॥४५॥ सत्यव्रती अपनी स्तुति न करें तथा जो गुण अपने में नहीं हैं उनका कीर्तन भी न करें । साथ ही वह न दूसरे की प्रतारणा करें- उसे न धोखा दें-और न उस के विद्यमान गुणों में द्वेष भी करें । यदि वह ऐसा करता है तो अवश्य ही नीच गोत्र को बाँधता है ॥ ४६ ।। इससे विपरीत बोलनेवाला-जो न अपनी स्तुति करता है और न अपने में अविद्यमान गुणों का वर्णन भी करता है, तथा न किसी को धोखा देता है और न उस के विद्यमान गुणों से द्वेष करता है-वह पुरुष उच्च गोत्रका बन्ध करता है। जो पुरुष अन्य का हित चाहता है वह स्वयं अपना ही हित करता है ॥ ४७ ॥ ४५) 1 D वाणी. 2 PD प्रसादनी. 3 D अविद्यमानान् गुणान् कथयति । ४६) 1 अविद्यमानान बुगान्. 2D विस्तारयन् । ४७) 1 PD परषः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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