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________________ -१२. ४३७१। - अहिंसासत्यव्रतविचारः २६१ 1022) येनाप्रत्ययदण्डौ संतापो भवति निरपराधस्य । असदभिधानं त्वनृतं तत्त्याज्यं दूरतः सुधिया ॥ ४१ 1023 ) केवलिन्यथ तपाश्रुतसंघदेवधर्मगुणवत्सु च जन्तुः । यस्त्ववर्णवंचनो ऽस्तु कुतश्चिद् दृग्विमोहनमुपार्जयते ऽसौ ॥ ४२ 1024 ) यो मोक्षमार्ग स्वयमेव जानन् नैवाथिने योग्यतमाय वक्ति । मात्सर्यतो ऽपह्नवतो मदाद्वा भवेदसावावरणद्वयी तु ॥ ४३ 1025 ) मन्त्रभेदः परीवादः पैशून्यं कूटलेखनम् । मुधासाक्षिपदोक्तिश्च सत्यस्यैते विघातकाः॥ ४३*१ जिस भाषण से अविश्वास उत्पन्न होता है, दण्ड भोगना पडता है और निरपराधी मनुष्य को संताप उत्पन्न होता है ऐसे अप्रशस्त वचन के बोलने का नाम असत्य है। उसका निर्मलबुद्धि मनुष्य को दूरसे ही परित्याग करना चाहिये ॥ ४१ ॥ केवली, तप, श्रुत, संघ, देव, धर्म और गुणीजनों के विषय में जो किसी कारण से निन्दात्मक भाषण करता हैं वह दर्शन मोहनीय कर्म को बाँधता है ।(भावार्थ-महापुरुषों आदि में से जो दोष नहीं हों उनको प्रगट करने का नाम अवर्णवाद है। केवली का अवर्णवाद -केवली कवलाहार-ग्रासमय आहार-को किया करते हैं। तप अवर्णवाद-तपका स्वरूप पञ्चाग्नि आदि बतलाना। श्रुत अवर्णवाद-आगम में मांस भक्षण को निर्दोष कहा गया है, इत्यादि ।संघ अवर्णवाद-मुनिसंघ के विषय में ये नंगे बैल है, अपवित्र हैं इत्यादि निन्दावचन कहना । देव अवर्णवाद - देव मद्यपान व मांसभक्षण करते हैं, इत्यादि कथन करना । धर्म अवर्णवाद-अहिंसा धर्म निरर्थक है, उस के धारक कायर होते हैं, इत्यादि प्रकार से समीचीन धर्म की निन्दा करना ) ॥ ४२ ॥ ___ जो श्रावक मोक्षमार्ग को स्वयं जानता हुआ भी उसके जानने के अभिलाषी अतिशय योग्य व्यक्ति को मात्सर्य, अथवा अभिमान के वश हो कर नहीं कहता हैं उस के ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन दोनों कर्मोंका बन्ध होता है ॥ ४३ ॥ मंत्रभेद,परिवाद, पैशून्य, कूटलेखन, तथा मुधासाक्षिपदोक्ति ये सत्यव्रत के विघातक पाँच अतिचार हैं। (इन का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-१) मन्त्रभेद-अंगविकार आदिसे दूसरे के अभिप्राय को जानकर उस को प्रगट करना। २) परिवाद-दूसरों की निन्दा करना। ३) पैशून्य-चुगली करना। ४) कूट लेखन-जो न दूसरेने कहा है और न जो किया भी है उसे ४२) 1 दोषवचन दोषोद्भावन. 2 D दर्शनमोहं । ४३) 1 दर्शनशानावरणद्वयी । ४३*१) 1P साक्षिः पदोक्तिश्च.2Dदोषाः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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