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1035 ) वसुः श्वभ्रं प्रापद्वितथवचने साक्षिकतया प्रविख्यातं चैतत्सकलभुवने चन्द्रमृगवत् । दिवाकीति:' साक्षादवितथगिरः सिद्धिमगमन् महाविद्याविद्वान् रमयति जनं सत्यवचसि ॥ ५१
धर्म रत्नाकरः -
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1036 ) किं कर्पूरकणोत्करैविरचिता' चन्द्रप्रभाभिः किमु स्वेष्टप्रेमरसापगा नु मधुनः किं वा वियद्वापिका । श्रीखण्डद्रवकूपिका किमु सुधानिष्यन्दकुल्या भवेत् तन्वानेति वितर्कमुत्तमधियां वाणी समालप्यते ॥ ५२
इति श्री धर्मरत्नाकरे द्वितीयम तिमामूलभूताहिंसा सत्यत्रतविचारो द्वादशो ऽवसरः ॥१२॥
[ १२.५१
बसु राजा असत्य भाषण में साक्षी होने से नरक में गया, यह वृत्त सर्व जगत् में चन्द्र के मृग-लांछन- के समान प्रसिद्ध है । इस के विपरीत सत्य भाषण से दिवाकीर्ति नामक महापुरुष मुक्तिपद को प्राप्त हुआ है । सत्यवचन में तत्पर जो पुरुष है उसे महाविद्याओं के ज्ञाता लोग संतुष्ट करते हैं, उसकी यथार्थ स्तुति करते हैं ॥ ५१ ॥
निर्मलबुद्धि सत्य भाषियों की वाणी क्या कपूर के कण समूहों से रची गयी है, अथवा क्या चन्द्रकी कान्तियों से रची गयी है, अथवा क्या मधु की अतिशय अभीष्ट प्रेमरस की नदी है, अथवा क्या आकाशवापिका - गंगा नदी - है, अथवा क्या चन्दन द्रवका छोटा-सा कुआँ है | अथवा क्या अमृतप्रवाह की छोटीसी नदी है; इस प्रकार के वितर्क को उत्पन्न करने वालर कही जाती है। अर्थात् सत्य बोलनेवाले को वाणी की सुनकर लोगों को अतिशय आनन्द उत्पन्न होता हैं ॥ ५२ ॥
इस प्रकार धर्मरत्नाकर में द्वितीय प्रतिमा के मूलभूत अहिंसाव्रत और सत्याणुव्रत का विचार जिसमें किया है ऐसा यह बारहवाँ अवसर समाप्त हुआ ॥ १२ ॥
५१) 1 नापित:. 2 D सत्यवाण्यः । ५२ ) 1 इति तर्क्यते, इयं वाणी कि कर्पूर... विरचिता इत्यादि. 2D अथ 3 सरसी ।