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________________ २४० - धर्मरत्नाकरः [१२. ११*२971) द्विदलं द्विदलं हेयं प्रायेणानवतां गतम् । शिम्बयः सकलास्त्याज्याः साधिताः सकलाश्च याः ॥ ११*२ 972) नरे महारम्भपरिग्रहे दया विद्यते नीरजिनीव निर्जले।। कुशीलमायाविनि वा विबुद्धधीर्यथा न विश्वासमुपैत्यनाकुलः ॥ १२ 973 ) दुःखशोकवधतापदेवनाक्रन्दनादि विदधन्निजान्ययोः । उग्रदुःखजनकं समर्जयेद् वेदनीयमविधीरितीवधिः ।। १३ 974) मैत्रीप्रमोदकरुणासमवृत्तयस्तु कार्या यथायथमिहत्यफलं विमुच्य । सत्त्वेषु सत्तमगुणेषु सुदुःस्थितेषु दूरं विनीतिरहितेषु विमत्सरेण ॥ १४ दो समान हिस्सों में विभक्त होने वाला द्विदल - मुंग व उडद आदि धान्य विशेषपुराना हो जाने पर बहुधा छोडने के योग्य हो जाता है । (क्योंकि उसमें कीडे छिद्र करके रहने लगते हैं ) । सेम आदि की सब फलियाँ जो बिना फाडे ही सिद्ध की गई हैं- पकाई गई हैं-खाने के योग्य नहीं हैं ॥ ११*२ ॥ जो मनुष्य महान-आरम्भ और परिग्रहमें निरत होता है उसमें दया इस प्रकार से संतप्त -नष्ट-होती है जिस प्रकार कि पानीसे रहित प्रदेश में कमलिनी संतप्त होती है-मुरझा जाती है अथवा जो मनुष्य कुशील और मायाव्यवहार से कलुषित होता है उसके अन्तःकरण में भी दया का वास नहीं होता है । और इसीलिये कोई भी बुद्धिमान् मनुष्य निराकुल हो कर उसके विषय में विश्वास को नहीं प्राप्त होता है ॥ १२ ॥ जो मनुष्य स्वयं अपने और दूसरे के विषय में दुःख, शोक,वध, ताप, देवन (परिदेवन) और आक्रन्दन को करता है तथा मर्यादा का उल्लंघन भी करता है वह तीव्र दुःख को उत्पन्न करने वाले वेदनीय-असातावेदनीय-कर्मको उपाजित करता है । (उनमें पीडा देने के परिणाम का नाम दुःख है। उपकारक व्यक्ति का वियोग हो जाने पर मन में जो खेद होता है उसका नाम शोक है । वध-आयु, इन्द्रिय, मनोबल, वचनबल, कायबल और श्वासोच्छ्वास इन प्राणोंका नाश करना, निंदा व अपमानादि से चित्त. संतप्त हो कर जो खेद उत्पन्न होता है उसे ताप कहते हैं। संक्लेश परिणाम से गुणस्मरणपूर्वक स्वपरोकार की अभिलाषासहित दया उत्पन्न करने वाला जो शोक होता है उसे देवन कहते हैं । निन्दा व अपमानादिक से अश्रुपातपूर्वक प्रचुर विलाप करने का नाम आक्रन्दन है ) ॥ १३ ॥ आत्महित के अभिलाषी सत्पुरुष को इस लोकसंबन्धी फल की अपेक्षा न कर के मात्सर्य भाव से रहित होते हुए यथा योग्य क्रम से प्राणिमात्र के विषय में मित्रता का भाव, उत्तम ११२) 1P सारी फली गोरससंयुक्ता, D मुद्गादिकम्. 2 चौला मूंग माष मोठक फली आली कोमल समस्ता त्याज्याः , D वालहल्लि । १२) 1 पद्मिनी, D कमलिनीव। १३) 1 रुदनम्. 2 कुर्वन 3 स्वपरनिमित्तयोः, D स्वपरयोः. 4 D वेदनीयं कर्म. 5 निराकृत, D मर्यादारहितम् । १४) 1 माध्यस्थम. 2 P°कुर्या, करणीया . 3 इहलोकफलम्, D निदानफलम्. 4 D गुणयुक्तेषु. 5 विपरीतवृत्तिषु ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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