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-१२. १४४४]
- अहिंसासत्यव्रतविचारः975) उक्तं च -
कायेन मनसा वाचा सर्वेष्वपि च देहिषु ।
अदुःखजननी वृत्तिर्मंत्री मैत्रीविदां मता ॥ १४*१ 976) तपोगुणाधिके पुंसि प्रश्रयाश्रयनिर्भरः ।
जायमानो मनोरागः प्रमोदो विदुषां मतः॥ १४*२ 977 ) दीनाभ्युद्धरणे बुद्धिः कारुण्यं करुणावताम् ।
____ हर्षामर्षोज्झिता वृत्तिर्माध्यस्थं समुदाहृतम् ॥१४*३ 978) इत्थं प्रयतमानस्य गृहस्थस्यापि देहिनः ।
करस्थो जायते स्वर्गों नास्य दूरे च तत्पदम् ॥ १४*४ सम्यगदर्शनादि गुणों के धारकों में हर्ष का भाव, रोगादि से अतिशय दुखी प्राणियों के विषय में दयाभाव और अविनीत-विपरीत स्वभाववाले-जनों के विषय में समवृत्ति-मध्यस्थता के भाव-को धारण करना चाहिये ॥ १४ ॥ : सब ही प्राणियों के विषय में शरीर से, मन से और वचन से दु:ख न उत्पन्न करने की भावना होती है उसे मैत्रीके ज्ञाता मैत्री कहते है ॥१४*१॥ - तपगुणसे अधिक-तपश्चरण और संयमादि गुणों में दृढता को प्राप्त-सत्पुरुष के विषय में जोअतिशय विनय के आश्रय से परिपूर्ण मन में अनुराग प्रादुर्भूत होता है उसे विद्वान् पुरुषोंने प्रमोद माना है ॥ १४*२ ॥ - दयालु जनों के अन्तःकरण में जो दीन-दुःखी प्राणियों के उद्धार की-दुःख से संरक्षण को- बुद्धि (भावना) उदित होती है, उसका नाम कारुण्य है । और विपरीत बुद्धि मनुष्यों के विषय में जो राग व द्वेष रहित वृत्ति-उदासीनता का भाव - उत्पन्न होती है, उसे माध्यस्थभाव कहा गया है ॥ १४*३ ॥ :: जो प्राणी उपर्युक्त भावनाओं के अनुसार प्रयत्न कर रहा है वह भले ही गुहस्थ क्यों न हो, फिर भी स्वर्ग को उसके हाथ में ही स्थिती समझना चाहिये। तथा वह पद-प्रसिद्ध मोक्षपद - भी उसके लिये दूर नहीं है। (अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त भावनाओं का चिन्तन करने वाला मनुष्य गृहस्थ होने पर भी शीघ्र ही स्वर्ग-मोक्ष को प्राप्त करता है ॥ १४*४ ॥
१४*२) 1 विनय । १४*३) 1 रागद्वेषरहितवृत्तिः । १४*४) 1 यलपरायणस्य. 2 PD मोश
पदम।