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________________ -१२. ११*१] - अहिंसासत्यव्रतविचारः967 ) स्पर्शनाकिमपि दर्शनात्परं हेयमस्ति मनसो ऽपि किंचन । सम्यगेवमवबुध्य धीधनः सेवतां विमलकर्म शर्मदम् ॥ ९ 968 ) कार्यकर्मणि निजे नियोजयेदाश्रितांश्च सकलान् प्रयत्नतः। प्रायशो यदिह दण्डयते विभुम॒त्यदोषकरणादितीरितम् ॥ १० 969) संधानपानकफलं दलमूलपुष्पं जीवरुपगतमपीह च जीवयोनिः । नालीनलादिसुषिरं च यदस्ति मध्ये यच्चाप्यनन्तमनुरूपमदः समुज्झ्यम् ॥ ११ 970 ) अमिश्र मिश्रसंसर्गि कालदेशदशाश्रयम् । वस्तु किंचित्परित्याज्यमपीहास्ति जिनागमे ॥ ११*१ छानकर उपयोग में लाना चाहिये । भोज्य पदार्थों को हाथ से स्पर्श कर के और नेत्रों से देख कर के खाना चाहिये ॥ ८॥ __किसी वस्तु का हेयपना स्पर्शन होने से ज्ञात होता है, कोई वस्तु देखने से त्याज्य प्रतीत होती है, तथा कोई अन्य वस्तु मन से विचार करने पर त्याज्य समझकर छोडी जाती है । इस प्रकार वस्तुओं के हेयपने को भलीभाँतो जानकर विद्वान् मनुष्य को सुखदायक निर्मल कार्य को करना चाहिये ॥ ९॥ योग्य कार्य के करने में सेवकों को यत्नाचारपूर्वक नियुक्त करना चाहिये । कारण यह है कि प्रायः सेवकों के अपराध से स्वामी को दण्डित किया जाता है, ऐसा कहा गया है ॥१०॥ जीवों से व्याप्त व उनकी उत्पत्ति के योनिभूत संधानक (अचार), पेय अर्थात् दी दिनों से अधिक दिनों का तक आदि, फल-जिसमें सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं, पत्र, मूल और पुष्प ये जीवोंसे परिपूर्ण पदार्थ त्याज्य हैं । तथा नाली (वनस्पति विशेष ), नल (एक प्रकार का पोला तृण) और सुषिर (अन्य पोली वनस्पति ) एवं जो अनन्तकायिक हैं ऐसे सब हो पदार्थ त्याज्य हैं ॥ ११ ॥ . इस जिनागम में काल, देश और अवस्था के आश्रित अमिश्र-अन्य के संसर्ग से रहित-तथा मिश्रसे संसर्ग रखने वाली वस्तु भी छोडने के योग्य है ॥ १११ ॥ कहा भी है ९) 1 ज्ञात्वा । १०)। युक्त. 2 स्वामी, D किंकरदोषे न प्रभुः दण्डयते । ११) 1 व्यापितम्. 2 सदृशम्. 3 एतत्. 4 त्यजनीय, D त्याज्यम् । ११*१)1 किंचित् अमिश्रं त्याज्यम्,किंचित् मिथं त्याज्यम् कालदे. शदशादि, D सदोषं त्यजनीयम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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