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- धर्मरत्नाकरः - 962 ) बालव्युत्पत्तिसंसिद्धयै कांश्चिदन्यान् प्रदर्शये ।
अहिंसनस्य पर्यायान् संदृष्टानपि जातितः ॥ ५ 963 ) स्यात्संरम्भसमारम्भारम्भेभ्यो विनिवर्तिनः ।
कषायेभ्यो हृषीकेभ्यो यक्षादिषु यथायथम् ॥ ६ 964 ) समग्रप्रतिमास्थानसमारोहणकारिणः ।
अहिंसा परमां कोटि समारोहत्यनाकुलम् ॥७। युग्मम् । 965 ) प्रसिद्धं च -
देवतातिथिपित्रर्थ मन्त्रौषधभयेन वा ।
न हिंस्यात्माणिनः सर्वानहिंसाख्यं व्रतं मतम् ॥ ७*१ 966 ) हर्म्य कार्य मखिलं नियोजयेत् दृष्टिपूर्तमथ यद्वाभिधम् ।
वस्त्रगालितमथाशनादिकं स्पृष्टदृष्टमुरुधर्मवासनः ॥ ८
के विघातक होने से उस हिंस. से पृथक् नहीं हैं-उसी के अन्तर्गत हैं। इन सब का जो पृथक पृथक् उल्लेख किया गया है वह केवल शिष्यों के लिये उनका विशेष परिज्ञान कराने के लिये किया गया है ॥ ४*१० ॥
मन्दबुद्धि जनों को उसका विशेष परिज्ञान प्राप्त हो सके, इस उद्देश से यहाँ उक्त अहिंसा की जातिस्वरूप से देखी गई कुछ अन्य भी पर्यायोंका-विशेषों का कथन किया जाता है ।। ५॥
जो गृहस्थ द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों के विषय में कषायों व इन्द्रियों के साथ संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ से निवृत्त हो कर समस्त प्रतिमास्थानों-श्रावक के दार्शनिक व व्रतिक आदि ग्यारह ही भेदों पर-आरूढ होना चाहता है-उनके परिपालन में उद्यत हो रहा है-उसको अहिंसा निराकुल स्वरूप से चरम सीमा को प्राप्त होती है ॥ ६-७ ॥
देवता, अतिथि, पितर, मंत्र, औषध ओर भय के वश जो सब प्राणियों का-किसी भी प्राणी का-प्राणवियोग नहीं करता है, यह अहिंसानामक व्रत माना गया है ।। ७#१ ॥
धर्म के प्रबल संस्कार से संयुक्त भव्य जीव को घर के समस्त स्वच्छतादि कार्य को नेत्रों से भली भाँति देखकर करना चाहिये । जो पानी के समान पतले पदार्थ हों उन्हें वस्त्र से
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५) 1 कान् चित्. 2 D विशेषान्. 3 मुख्यतः । ६) 1 D मनवचनकाययोगेभ्यः. 2 D इन्द्रियेभ्यः. 3 द्वीन्द्रिया [दिषु],D त्रसजीवेषु. 4 D भङगेन त्रसानां हिंसा न कर्तव्या। ७*१)1D जीवान् । ८) 1 D गृहकार्य. 2 D समस्तमवलोक्य. 3 जलततैल तक्रदुग्धादि इव, D दुग्धादि पेयवस्तूनि. 4 D हस्त वा दृष्टि. तोधित।