SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३९ -१२. ३०९] - अहिंसासत्यव्रतविचारः932) तदुक्तम् तथा च शान्तचित्तानां सर्वभूतदयावताम् । वैदिकीयपि हिंसासु विचिकित्सा प्रवर्तते ॥३*५ 933 ) धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम् । इति दुविवेककलितों विधायं धिषणी न देहिनो हिंस्याः ॥३*६ 934) पूज्यनिमित्तं घाते रागादिः को ऽपि मम न खल्वस्ति । इति संप्रधार्य कार्य नातिथये सत्त्वसंज्ञपनम् ॥ ३*७ 935) बहुसत्त्वघातजनितादशनाद्वरमेकसत्त्वघातोत्थम् । इत्याकलय्य कार्य न महासत्त्वस्य हिंसनं जातु ॥ ३४८ 936 ) रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन । इति मत्वा कर्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्त्वानाम् ॥३*९ जिन के अन्तःकरण में शांति का वास है, तथा जो सब ही प्राणियों के विषय में दयालु हैं, उन महापुरुषों को वैदिकी हिंसा-वेदविहित याज्ञिकी जीवहिंसा - के विषय में भी घृणाभाव प्रवृत्त होता है। (वे उससे सहमत नहीं होते हैं) ॥ ३५ ॥ ___ लोक में धर्म की उत्पत्ति चूँकि देवताओं से होती है । अतएव उन्हें सबकुछ देना चाहिये ऐसी अविवेक युक्त बुद्धि के वश होकर प्राणियों का धात करना योग्य नहीं है ॥३६॥ किसी पूज्य अतिथि या गुरु आदि के लिये जीव के- बकरा आदि के-मारने में मुझे कोई राग द्वेषादि भाव नहीं है, ऐसा विचार कर अतिथि के लिये प्राणियों का घात नहीं करना चाहिये ॥ ३७ ॥ अनेक प्राणियों को मारकर भोजन बनाने की अपेक्षा किसी एक ही बडे प्राणी को मारकर भोजन के लिये उसके माँस का उपयोग करना कहीं अच्छा है ऐसा विचार कर (हाथी या भैसा आदि) किसी विशालकाय प्राणी का घात कभी भी नहीं करना चाहिये ॥ ३*८ ।। इस एक हो जीव का वध करने से अन्य बहुत से प्राणियों का रक्षण होता है ऐसा समझकर हिंस्र प्राणियों का- सर्प व सिंहादिकों का-घात नहीं करना चाहिये ॥ ३९ ॥ ३*५) 1 [वेद ] संबन्धिनीषु. 2 निवृत्तिः, D निन्दा । ३*६) 1 देवताभ्यः. 2 D मांसादिकम्:. 3 मिश्रिताम.4 कृत्वा. 5 बुद्धिम्. 6 जीवाः । ३*७) 1 पूज्यनिमित्त वधे जीवे रागद्वेषादिः नास्ति. 2 मनसि धृत्वा. 3 जीववधः, D हिंसनम् । ३*८) 1 विचार्य. 2 न करणीयम्. 3 हस्तिशूकरादेर्जीवस्य । ३*९) 1 हिंस्रजीवस्य. 2 सर्पसिंहादीनाम्, D सिंहादीनाम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy