________________
२३० - धर्मरत्नाकरः -
[१२. ३२१928) कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा ।
औत्सगिकी' निवृत्तिर्विचित्ररूपापवादिकी त्वेषाम् ॥ ३*१ 929 ) स्तोकैकेन्द्रियघाताद् गृहिणां संपन्नयोग्यविषयाणाम् ।
शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ॥ ३*२ . 930) अमृतत्वहेतुभूतं परमहिसारसायनं लब्ध्वा ।
अवलोक्य बालिशानामसमञ्जसमाकुलैन भवितव्यम् ॥ ३४३ 931 ) सूक्ष्मो भगवान् धर्मो धर्मार्थं हिंसते न दोषो ऽस्ति ।
इति धर्ममुग्धहृदयैर्न जातु भूत्वा शरीरिणो' हिंस्याः ॥ ३*४ इन्द्रियों, चार कषायों, निद्रा और स्नेह इन पन्द्रह प्रमादों के अभ्यास में निरत होता है उसे प्रमत्त-प्रमाद से संयुक्त कहा गया है ॥३॥
जो हिंसा आदि की निवृत्ति (त्याग) कृत, कारित व अनुमोदना के साथ मन, वचन, और काय, इस प्रकार इन नौ भेदों से की जाती है, वह औत्सर्गिको-सामान्य - निवृत्ति कही जाती है । इसके अतिरिक्त जो यह आपवादि की विशेषतापूर्वक की जानेवाली - निवृत्ति है, वह अनेक प्रकार की है ।। ३*१ ।।
. थोडे से एकेन्द्रिय जीवों का घात करने से ही जिन गृहस्थों के योग्य विषयों की पूर्ति हो जाती है, उन्हें (अनावश्यक) शेष स्थावर जीवों के घात का भी परित्याग अवश्य करना चाहिये ।। ३*२॥
विवेकी जनों को अमृतत्व-जन्म के अविनाभावी मरण से रहित मोक्ष-के कारणभूत ऐसी उत्तम अहिंसारूप रसायन को प्राप्त कर के अज्ञानो जनों के असदाचरण को देखते हुए व्याकुल नहीं होना चाहिये ॥ ३३ ॥
(धर्म संभवत: पूज्य है ) । वह इतना सूक्ष्म है ( कि सर्व साधारण उसका ठीक ठीक विचार नहीं कर सकते) । यदि उस धर्म के निमित्त जीववध किया जाता है तो इसमें कोई दोष नहीं है। इस प्रकारके विचार से जिनका मन उस धर्म के विषय में मूढता को प्राप्त हो रहा है-जो अन्तःकरण से उस धर्म के यथार्थ स्वरूप का विचार नहीं कर सकते हैं-ऐसे अज्ञानी जन को लक्ष्य कर के यह कहा जा रहा है कि उन भोले भाले मनुष्यों को धर्ममूढता के वश होकर कभी भी-किसी भी अवस्था में प्राणियों का वध नहीं करना चाहिये ॥३४॥
सोही कहा है
३*१) 1 सूक्ष्मनिवृत्तिः, D स्तोका. 2 सूक्ष्मा. 3 विशेषरूपा, D बहुतरा. ३*२) 1 कार्यनिमित्तानाम् । ३*३) 1 मोक्षत्व. 2 अज्ञानिनाम्. 3 असमानं मोक्षहेतुत्वम्, D अन्यथारूपम् । ३*४) 1 जीवाः2 न मारणीयाः।