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-धर्मरत्नाकरः
[१२. ३*१०937) बहुसत्त्ववातिनो' ऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति बहुपापम् ।
इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीयाः शरीरिणो हिंस्राः ॥ ३*१० 938 ) बहुदुःखाः संज्ञपिताः प्रयान्ति न चिरेण दुःखविच्छित्तिम् ।
इति वासनाकृपाणीमादाय न दुःखिनो निहन्तव्याः॥ ३*११ 939) कृच्छ्रेण सुखावाप्तिर्भवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव ।
___ इति तर्कमण्डलानः सुखिनां घाताय नादेयः ॥ ३*१२ 940) उपलब्धसुगतिसाधनसमाधिसारस्य भूयसो' ऽभ्यासात् ।
स्वगुरोः शिष्येण शिरो निकर्तनीयं न धर्ममभिलषता ॥ ३*१३ 941 ) धनलवपिपासितानां विनयविश्वासनाय दर्शयताम् ।
__ झटिति घटचटकमोक्षं श्रद्धेयं नैव खारपटिकानाम् ।।३*१४
बहत से प्राणियों की हत्या करनेवाले ये सर्प व हिंसादि हिंसक प्राणी-जीवित रहकर बहुत से पापों को उत्पन्न करनेवाले हैं । इस प्रकार उनके ऊपर दया कर के (उस पाप से मुक्त करने की इच्छा से ) उक्त हिंसक प्राणियों का (कभी) घात नहीं करना चाहिये ॥३१०॥
जो प्राणी रोगादि से पीडित होकर अतिशय दुख का अनुभव कर रहे हैं वे मार देने पर चिरकाल में दुख के अभाव को-सख को-प्राप्त हो सकते हैं । इस प्रकार की वासना संस्कार या विचार-रूप तलवार को लेकर उन दुखी जीवों का घात नहीं करना चाहिये ॥३*११॥
सख को प्राप्ति चंकि बडे कष्ट से होती है, अबएव जो प्राणी वर्तमान में सखी हैं उनका वध कर वे भविष्य में सुखी ही रहेंगे, ऐसा तर्करूपी खड्ग सुखियों को मारने के लिये नहीं लेना चाहिये ।। ३*१२॥
जिसने प्रचुर अभ्यास के बल से स्वर्ग मोक्ष स्वरूप उत्तम गति की हेतुभूत श्रेष्ठ समाधि को प्राप्त कर लिया है, अर्थात् जो प्रतिमायोग में अवस्थित है, ऐसे गुरु के शिर का धर्म की अभिलाषा से शिष्य के द्वारा काटना योग्य नहीं है ।। ३* १३ ॥
थोडे से धन की प्राप्ति की इच्छा से शिष्यों को विश्वास उत्पन्न करने के लिये शीघ्र ही घटचटक मोक्ष दिखाने वाले खारपटिकों पर श्रद्धा नहीं करनी चाहिये । (अभिप्राय
३*१०) 1 P°सत्त्वघाततो . 2 जीवमाना जीवा:. 3 सिंहादयः । ३*११) D1 खेदखिन्नाः 2 PD छुरिकाम्. 3 गृहीत्वा । ३*१२) 1 D कष्टेन. 2 D खड्ग । ३*१३) 1 बाहुल्यात्. 2 D शिष्येण सु [स्व ] गुरोः शीर्षे न खण्डनीयम् । ३*१४) 1 शिष्य. 2 Dमुञ्चनम् . 3 खारपटिकानां ठकानाम् एतद्वचनम् । यथा घटमध्ये चटको घटभङग [ उड्डीयते मरणं न लभते तथा जीवोऽपि देहमध्ये सति देहविनाशे गत्यन्तरं गच्छति न मरणं लभते, अतः देहयाते न हिसा भवति, D ठगानाम् ।