________________
-११. ६२]
- आद्यप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
-
3
915) तच्छासाङ्ख्यचार्वाक वेदे वैद्य कर्पादिनाम् ।
तं विहाय हातव्यं मांसं श्रेयो ऽथिभिः सदा ॥ ६०*१ 916 ) यस्तु लौल्येन मांसाशी धर्मधीः स द्विपातर्कः ।
परदारक्रियाकारी मात्रा सत्री यथा नरः ॥ ६०*२ 917 ) चण्डो ऽवतिषु मातङ्गः पिशितस्य निवृत्तितः । अप्यन्तकालभाविन्याः प्रपेदे ' यक्षमुख्यताम् ।। ६०*३ 918) उक्तानुक्तचूलिका
शुद्धसम्यक्त्वमात्रो ऽपि प्रथमप्रतिमो भवेत् । अष्टसूलगुणोपेतो ऽप्येतन्मात्री नरोत्तमः ।। ६१
919 ) सप्तव्यसन संत्यागी व्रती चान्यतमेन वा । धुरंधरः सुदृष्टीनां त्यक्तास्तमयभोजनः ॥ ६२
२३५:
( अभिप्राय यह है कि वस्तु के विचित्र स्वरूप का विचार करते हुए लोकव्यवहार का अनुसरण कर प्रकृत में सदोषता और निर्दोषता का विचार करना चाहिये, न कि अविवेकपूर्वक दुराग्रह के वंश होकर) ॥६०॥
इसलिये आत्महितस्वरूप मोक्ष की इच्छा करनेवाले सत्पुरुषों को बोद्ध, सांख्य, चार्वाक, मीमांसक, वैद्य और महेश्वर इन के मतों को छोड़कर उस माँस का त्याग सदा के लिये ही करना चाहिये || ६०* १ ॥
जिस प्रकार परस्त्री का सेवन करनेवाला मनुष्य उस परस्त्री के माता के समान होने से माता के साथ समागम करने का भी पातकी होता हुआ दो पापों को करता है, उसी प्रकार धर्मबुद्धि से जो लोलुपता के साथ मांसभक्षण करता है, वह भी दो पातकों को करता है ॥ ६०॥ २ ॥ अवन्ति देश में चण्डनामक चाण्डाल ने अन्त समय जो माँस का त्याग किया उस से वह यक्षों में मुख्य यक्ष हुआ है || ६०*३||
उक्त - अनुक्त चूलिका - जो विषय कहा गया है उसके साथ तत्संबद्ध अनुक्त अर्थं का कथन करना, इसे चूलिका कहते हैं ।
जो केवल शुद्ध सम्यग्दर्शनधारण करता है उसे दर्शनप्रतिमाधारक जानना चाहिये । तथा जो उस सम्यग्दर्शन के साथ आठ मूल गुणों को भी धारण करता है उसे मनुष्यों में श्रेष्ठ समझना चाहिये ॥ ६१ ॥
उक्त दर्शन प्रतिमा का धारक श्रावक द्यूत आदि सात व्यसनों का त्यागी अथवा अन्यतम से - हिंसादि पाँच पापों में किसी एक पाप से या सात व्यसनों में से किसी एक ही व्यसन से व्रती (विरत ), सम्यग्दृष्टि जनों में श्रेष्ठ और रात्रिभोजन से विरत होता है ॥६२॥
६०* १) 1 बौद्ध. 2D मतं. 3परवादिनाम्, D मांसभक्षकानां । ६०*२ ) 1D द्विगुणपातकी. 2 समम् । ६०* ३ ) 1 निवृत्तेः सकाशात्. 2 D प्राप्तः । ६२ ) 1D एकेन व्रतेन. 2 संध्याकालभोजन:, D जवी ।