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- धर्मं रत्नाकर
920 ) मुहूर्त युगलादूर्ध्वं निगोदैः सूक्ष्मवादरैः ।
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संमूर्च्छति त्रसैश्वापि नवनीतमतस्त्यजेत् ।। ६३ 921 ) यथोक्तसम्वत्वमयो हि जीवो विरामजातोज्झितभावनोऽपि । विज्ञानचारित्रतपो ऽधिलक्ष्म्य एष्यन्तिं कल्याणकलापवत्तम् ॥ ६४ 922 ) यदप्यनभ्यासबलात्सुदूरात् चारित्रमोहोदयतः प्रचण्डात् । तं न किंचित्स्थितिमभ्युपैति सद्दर्शनी सार्वमतिस्तथापि ।। ६५ 923 ) इत्येवं जयसेनसंमतमतं संभाव्य शक्ति स्वक धार्याद्या प्रतिमां भवेन्मतिमता निस्तन्द्रिणा सर्वथा । निर्विघ्नं त्रिदिवामृतत्वंनगरप्रस्थायिनां प्राणिनां पन्थास्तीर्थकराभिधानसुदिनं चाद्यैषिकाराधना ॥ ६६ यथावदाद्यप्रतिमाप्रपञ्चन एकादशपरिच्छेदः ॥ ११ ॥
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[ ११.६३
मक्खन चूँकि दो मुहूर्तों के पश्चात् सूक्ष्म और बादर दोनों प्रकार के निगोद जीवों एवं सजीवों की उत्पत्ति से युक्त उनसे व्याप्त हो जाता है । अत एव दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक को उक्त मक्खन का भी परित्याग करना चाहिये ॥ ६३ ॥
उपर्युक्त स्वरूपवाले सम्यग्दर्शन से सम्पन्न जो जीव अन्त समय में प्राप्त हुए उस सम्यदर्शन की भावना से ( अथवा अहिंसादि व्रतों की भावनाओं से ) रहित हो तो भी उसे कल्याण परम्परा के समान सम्यग्यज्ञान, सम्यक्चारित्र और तपरूप संपत्तियाँ चाहेंगी । ( उसे भविष्य में कल्याण परम्परा के साथ सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तपरूप लक्ष्मी भी प्राप्त होने वाली है॥६४॥
यद्यपि प्रबल अभ्यास के न होने से तथा अप्रत्याख्यानावरणादिरूप चारित्र मोहनीय के तीव्र उदय से उसके कुछ भी व्रत-उसका लेश भी अवस्थान को प्राप्त नहीं होता है, तो भी- व्रतहीन होने पर भी वह सब ही प्राणियों के हित की अभिलाषा करनेवाले जिनेन्द्र देव के विषय में बुद्धि करता हुआ उनके विषय में दृढ श्रद्धा रखता हुआ - दर्शनप्रतिमा का धारक होता है ।। ६५ ॥ इस प्रकार से जो मत जयसेन - प्रस्तुत ग्रंथ के कर्ता- को अभीष्ट है उसकी और अपनी शक्ति की सम्भावना कर के उन दोनों का गंभीरतापूर्वक विचार कर के - बुद्धिमान् भव्य जीव को आलस्य का सर्वथा परित्याग करते हुए उस प्रथम प्रतिमा को धारण करना चाहिये । यह दर्शनप्रतिमा स्वर्ग और मोक्षरूप नगर के प्रति प्रस्थान करने वाले प्राणियों के लिये निर्बाध मार्ग- उनकी प्राप्ति का उपाय, तीर्थंकर नामकर्मरूप उत्तम दिन तथा चार आराधनाओं में वह प्रमुख आराधना है || ६६ ॥
इस प्रकार प्रथम प्रतिमा का विस्तार करनेवाला ग्यारहवाँ परिच्छेद - अवसर समाप्त हुआ ।। ११ ।।
६४) 1 वैराग्यसमूहभावना रहितो ऽपि 2 वाञ्छन्ति 3 सम्यक्त्वमयं जीवम् । ६५ ) 1 [ जिनेन्द्र श्रद्दधानः ] । ६६ ) 1 निजा शक्तिम्, D आत्मोयां, 2 दर्शनप्रतिमा. 3 स्वर्गमोक्ष 4 मार्ग:. 5 D सुमुहूर्त. 6 कथिता ।