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धर्म रत्नाकरः -
910 ) शुद्ध दुग्धं न गोमांसं वस्तुवैचित्र्यमीदृशम् ।
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विषघ्नं' रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः || ५८२ 911 ) हेयं पलं पर्यः पेयं समे सत्यपि कारणे ।
913 ) अपि च
विषद्रोरायुषे पत्रं मूलं च मृतये मतम् ।। ५८३ 912 ) पञ्चगव्यं तु तैरिष्टं गोमांसे शपथः कृतः । पित्ताप्युपादेया प्रतिष्ठादिषु रोचना ॥ ५९
शरीरावयवत्वे ऽपि मांसे दोषो न सर्पिषि । जिह्वावेन हि दोषाय पादे मद्यं द्विजातिषु ।। ५९*१
914 ) यथा वा तीर्थभूता हि मुखतो निन्द्यते हि गौः । वन्द्यते पृष्ठतः सैव कियदित्थं प्रकथ्यते ।। ६०
[ ११.५८*२
वस्तु की विचित्रता ऐसी है कि गाय का दूध तो शुद्ध माना जाता है, परन्तु उसका मांस शुद्ध नहीं माना जाता है । सो ठीक भी है, क्योंकि, सर्प का विष को नष्ट करनेवाला मणि तो ग्राह है, पर उसका विष विपत्ति के लिये - मृत्यु का कारण होता है ॥ ५८२ ॥
गायरूप कारण के समान होने पर भी उस का माँस तो त्याज्य है और दूध पीने योग्य है । ठीक है, विषवृक्ष का पत्र तो आयुष्य का-प्राण रक्षण का कारण नाना गया है और उसीकी जड मृत्यु का कारण मानी गई है ॥ ५८* ३ ॥
उन्होंने (ब्राह्मणों ने ) पंच गव्य को मान्य किया हैं ( गोमूत्र, गोमय, दूध, दही और घ) पर गोमांस के भक्षण की शपथ ली है-उसका खाना अभीष्ट नहीं है । इसी प्रकार गाय के पित्त से उत्पन्न हुआ गोरोचन भी प्रतिष्ठादि के कार्यों में उपादेय माना गया है ॥ ५९ ॥ शरीर का अंश जैसे माँस है वैसे ही घी भी है। फिर भी उनमें मांस के भक्षण में तो दोष माना जाता है पर घी के भक्षण में दोष नहीं माना जाता । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन उच्च माने जानेवाले तीन वर्णों में मद्य जीभ के समान पाँव के विषय में दोष का कारण नहीं है । अर्थात् उपर्युक्त जातियों में मद्य का शरीर के अवयव स्वरूप जीभ से स्पर्श करना तो दोषकारक माना गया है, पर पाँव से उस का स्पर्श करना दोषकारक नहीं माना गया है । ५९* १ ॥ इसी प्रकार तीर्थस्वरूप - पवित्र गाय मुख की ओर से निन्द्य मानी जाती है और वही पीछे की ओरसे वन्दनीय मानी जाती है । इस प्रकार यहाँ और कहाँ तक कहा जाय ?
५८* २ ) 1 विषविनाशकम् 2 ग्राह्यम् 3 सर्पे विषम् 4 च पुनः नादेयम् । ५८* ३ ) 1 दुग्धम् . 2 विषवृक्षस्य । ५९) 1 गोमूत्रं गोमयं क्षीर दवि सर्पिस्तथैव च । एकत्र मिश्रितैरेभिः पञ्चगव्यं विनिर्दिशेत्. 2 तस्य गोः. 3 गोरोचन । ५९* १ ) 1 घृते, D घृते न दोष: 2D मद्यं जिव्हालग्ने दोषो न पादयोः ।