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-११. ४७]
- आद्यप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 888 ) सूक्ष्मजीवबहुतात्र कथ्यते किंचिदेव वसतिश्च देवता ।
स्याद्वनस्पतिरितीरणे कथं भक्ष्यते ह्यवयवो ऽपि वन्यते ॥ ४३ 889 ) त्वचं च कन्दमेव वा पलाशमेतदुद्भवम् ।
व्रतं न खादतां स्ख लेद् व्रतार्थिनां कुतश्चन ॥ ४४ 890) एतत्फलादनाद् दुःखं कियन्तः प्रापिरे न हि ।
मद्यमांसमधूनां च त्यागे ऽस्य च न के सुखम् ।। ४५ 891) न मांससेवने दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेव भूतानामित्यूचुविषयार्थिनः ॥ ४६ 892) अनादिकालं भ्रमतां भवाब्धो निवृत्तिदूरीकृतमानसानाम् ।
स्वप्ने ऽपि सत्संगतिदूरितानामिदं वचः पेशलतां प्रयाति ॥ ४७
है ऐसे उन उपर्युक्त सूखे फलों के भी भक्षण से विशिष्ट रागादिरूप पाप (हिंसा) होता ही है ॥ ४२*२॥
उपर्युक्त उदुम्बर फलों में सूक्ष्म जीवों की अधिकता कही जाती है । इस के अतिरिक्त वे-पीपल आदि के वृक्ष-देवों के निवासस्थान होते हुए स्वयं भी देव कहे जाते हैं । तब वैसी अवस्था में भला उक्त फलों का भक्षण कैसे किया जाता है, ( अर्थात् उनका भक्षण करना योग्य नहीं है । उनका तो अवयव - एक एक अंश भी -वन्दनीय है ) ॥४३॥
___ इन वृक्षों से उत्पन्न होनेवाली छाल, जल अथवा पत्ते को खानेवाले व्रताभिलाषी (व्रती) जनों का व्रत क्यों नहीं स्खलित होगा ? होगा ही ॥ ४४ ॥
इन फलों के भक्षण से कितने लोग दुःख को नहीं प्राप्त हुए हैं? तथा मद्य, माँस और मधु का त्याग करने से कौन से जन सुख को प्राप्त नहीं हुए हैं ? ॥ ४५ ॥
न मांस के भक्षण में दोष है, न मद्य के पीने में दोष है और न मथुन के सेवन में भी दोष है । क्योंकि, यह सब प्राणियों को प्रवृत्ति स्वाभाविक ही है, ऐसा कितने ही विषयासक्त जन कहा करते हैं। सो यह कथन उन्हीं को सुन्दर प्रतीत होता है जिनका मन उक्त मद्यादि के त्याग की ओर से सदा दूर रहा है और जो इसी कारण अनादि काल से संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं तथा जिनको स्वप्न में भी कभी सत्पुरुषों की संगति नहीं प्राप्त हुई है ॥४६-४७॥
४३) 1 उंबरादिषु. 2 D इस प्रकार स्त्रीकारणे । ४४) 1 पत्रम् । ४५) 1 मांसादि उदुम्बरादि. 2 PD भक्षणात्. 3 उदुम्बरादेः, D अदनस्य । ४६)1 जीवानाम् । ४७) 1 मद्यमांसादि-निवृत्तिरहितानाम्. 2 साधुसंगतिरहितानाम्. 3 मनोज्ञताम् ।