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________________ २२८ -धर्मरत्नाकरः - [११. ४०883 ) सरघामुखनिर्यासः सरघादेहमिश्रितम् । ____परलालाविलोच्छिष्टं तत्कथं प्राश्यतां मधु ॥४० 884) कुसुमरस इतीदं श्राद्धकाले ऽप्ययुक्तं बहुविधतनुभाजां भञ्जनादत्र नूनम। परहतगजमात्रक्रव्यसंप्राणनं वा त्रिभुवनगतकीर्तस्तस्य माण्डव्यनाम्नः ॥ 885) किं च पुष्पपुरे' विप्रो मध्वास्वादनसक्तधीः। ननाश बहुभिः सार्धमित्यतो ऽपि न खाद्यते ॥ ४२ 886) योनिरुदुम्बरयुग्मप्लान्यग्रोधपिप्पलफलानि । त्रसजीवानां तस्मात्तेषी तद्भक्षणे हिंसा ।। ४२*१ 887 ) यानि तु पुनर्भवेयुः कालोत्सनत्रसानि' शुष्काणि । भजतस्तान्यपि पापं विशिष्टरागादिरूपं स्यात् ।। ४२*२ जो मधु मधुमक्खियों के मुंह से निकला हुआ, अनेक मृत शरीर से मिश्रित तथा दूसरे प्राणियों की लार से मलिन व उच्छिष्ट होता है वह कैसे खाया जाता है ? ( अर्थात विवेकी मनुष्यों को ऐसे घृणित मधु का सेवन करना योग्य नहीं है) ॥ ४० ॥ ___ मधु को फूलों का रस समझकर यदि श्राद्ध के समय में दिया जाता है तो वह भी योग्य नहीं है । कारण कि उसके निकालने में असंख्यात मधुमक्खियों का तो विनाश होता ही है। (साथ ही उस के भीतर जो अन्य बहुत प्रकार के कीडे रहते हैं उनका भी उस के भक्षण में निश्चय से विनाश होता है । । उदाहरण स्वरूप माण्डव्य ऋषिने, जिसकी कि कीर्ति तीनों लोकों में फैल रही थी दूसरे के द्वारा मारे गये हाथी के मांस को जो खाया था वह योग्य नहीं था। (कारण कि स्वयं जीवघात के न करने पर भी उस माँस में रहने वाले अन्य असंख्यात जीवों का विघात हुआ ही करता है ) ॥ ४१ ॥ ' पुष्पपुर (पाटलीपुत्र नगर ) में जो एक ब्राह्मण मधुभक्षण में आसक्त हुआ था। वह उस के भक्षण से अन्य बहुतों के साथ मरण को प्राप्त हुआ है । इसलिये भी मधु को नहीं खाना चाहिये ॥ ४२ ॥ ऊमर और कठूमर ये दो प्लक्ष, वडका फल और पाकर तथा पीपल ; ये पांचों फल चूंकि त्रस जीवों की उत्पत्ति के स्थान हैं । इसलिये उनके भक्षण से हिंसा होती है।४२*१॥ इसके अतिरिक्त समयानुसार जिनके भीतर अवस्थित त्रस जीवों का विघात हो चुका ४०) 1 मधुमक्षिकारसः, D मक्षिका. 2 मषि[ क्षि ]काण्डम् । ४१) 1 मधु. 2 मांसेन निजजीवितव्यरक्षणम्, D मांसं । ४२) 1 D नगरे । ४२*१) 1 उत्पत्ति. 2 उंबरक बर द्वौ, D गूलरिकवरी 3 पिलषणि. 4 तेषाम् उदुम्बरादीनाम्. 5 तेषां वसजीवानाम् । ४२*२) 1 PD°त्सन्नत्र सानि शुरु, काल. पतितानि, D मृतानि नसानि ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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