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________________ -११. ३९] • आद्य प्रतिमाप्रपञ्चनम् - 878) मांसादिषु दया नास्ति न सत्यं मद्यपायिषु । आनृशंस्यं' न मर्त्येषु मधूदुम्बरसेविषु ॥ ३८* १ 879 ) मधुशकलमपि प्रायो मधुकर हिंसात्मकं भवति लोके । भजति मधुमूढबुद्धिर्यो भवति स हिंस को ऽवश्यम् ॥ ३८*२ 880 ) स्वयमेव विगलितं यद् गृहीतमथवा छलेन निजगोलात्' । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात् ॥ ३८*३ 881 ) मधुमद्यं नवनीतं पिशितं ' च मते ' महाविकृतयस्ताः । कल्प्यन्ते न व्रतिनां तद्वर्णा जन्तवस्तत्रं ॥ ३८*४ 3 4 882) ग्रामसप्तकविदाहनोपमं कथ्यते ऽत्र मधु बिन्दुभक्षणम् । राजिकार्त इव मेरुरुत्थितस्तत्कथं तुं मधु रस्यते मुधा ॥ ३९ 3 २२७ मांस भक्षण करनेवाले मनुष्यों में दया और मद्य के पीनेवाले मनुष्यों में सत्यभाषण संभव नहीं है । इसी प्रकार मधु और उदुम्बर ( त्रस जीवयुक्त ) फलोंका भक्षण करनेवाले मनुष्यों में दयालुता नहीं रह सकती है ॥ ३८* १ ॥ लोक में मधु (शहद) का टुकडा - एक बूंद भी बहुधा मधुमक्खियों की हिंसारूप होती है । तब ऐसी अवस्था में जो मुर्खबुद्धि - अविवेकी मनुष्य - उस मधु का सेवन करता है वह अवश्य ही हिंसक - हत्यारा होता है ॥ ३८२॥ जो मधु छत्ते से स्वयं ही निकला है अथवा कपटपूर्वक मधु के उस छत्ते से ग्रहण किया गया है उसमें भी उसके आश्रित प्राणियों के घात से हिंसा होती ही है ॥ ३८३॥ मधु, मद्य, मक्खन और माँस ये चारों अतिशय विकाररूप हैं । इसीलिये व्रतीजनों को उनका सेवन करना योग्य नहीं है । क्योंकि, उन में उन्हीं का जाति के जीव रहा करते हैं, जिनका विघात उन के सेवन से अवश्य होनेवाला है ॥ ३८४ ॥ मधु की एक ही बूंद का सेवन सात गाँवों के जलाने के समान है। ( जितना पाप सात गाँवों के जलाने से हो सकता है, उतना पाप उसकी बूँदमात्र के सेवन से होता है ) । उदाहरण के रूप में उक्त पाप को ऐसा समझना चाहिये जैसे कि क्षुद्र राई के कण से मेरु उठ खड़ा हुआ हो। इसलिये महापाप के कारणभूत उस मधु का व्यर्थ स्वाद क्यों लिया जाता है ? ( अर्थात् वैसी अवस्था में उसका सेवन करना योग्य नहीं है ) ॥ ३९ ॥ ३८*१) 1 D कृपापरिणामं. 2 D पुरुषेषु । ३८* २ ) 1D मक्षिका । ३८* ३ ) 1 मधुच्छत्तात् ३८*४) 1 मांसम्. 2 जैनमते. 3 P कल्पन्ते, ता विकृतयः व्रतिनां न कल्पन्ते न युक्ता भवन्ति. 4 मध्वादीनां सदृशा:. 5 मध्वादिषु । ३९ ) 1राईमात्रात् मधुभक्षणात्. 2 अहो. 3 P D भक्ष्यते 4 वृथा ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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