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________________ २२४ - धर्मरत्नाकर: [११, ३५ 865) आरम्भादशने ऽपि नाम बहुधा हिंसेति संभावयन् स्वल्पा सैकमजोद्भवाद्धि पिशितात् तृप्तिश्च पाण्मासिकी । माण्डव्यः कृतवानतस्तदपरे ब्रूयुर्बहिर्दृष्टय स्तन्नामं परिपच्यमानमनिशं पक्वं च संसूर्च्छति ॥ ३५ 866 ) यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषषभादेः । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोदनिर्मथनात् ॥ ३५*१ 867) तदुक्तम् आमासु व पक्कासु व विपच्चमाणासु मंसपेसीसें। सातत्तेणोप्पाओ तज्जाईणं निगोदाणं ॥ ३५७२ 868 ) अल्पक्लेशात्सुखमनुसरेत्स्क्स्य यः संविधातुं' आत्मंद्विष्टान्यनुदिनमसौ मा परत्रापि कुर्यात् । धर्माच्छर्म स्वयमनुभवन् द्वेष्टिं तं नाम मूढः को ऽज्ञश्छिन्ते समभिलषितप्रापकं कल्पवृक्षम् ॥ ३६ अपने शरीर का पोषण नहीं करना चाहिये । (अभिप्राय यह है कि मृत्यु का कष्ट सभी को व्याकुल किया करता है। तब ऐसी अवस्था में विवेकी मनुष्य को स्वयं जीवित रहने की इच्छा से दुसरे प्राणियों को मारकर उनके माँस से अपने शरीर का पोषण करना योग्य नहीं है ॥३४॥ भोजनविषयक आरम्भ से भी बहुत प्रकार की हिंसा होती है । उसकी अपेक्षा एक बडे हाथी के मारने से हिंसा थोडी और उसके माँस से तृप्ति छह महीनोंतक हो सकती है । इसी सम्भावना पर माण्डव्य नामक ऋषि ने यही किया था। ऐसा अन्य मिथ्यामति कहते हैं। परन्तु वह युक्त नहीं है । क्योंकि माँस चाहे कच्चा हो, चाहे पक रहा हो अथवा पक चुका हो, उसकी सभी अवस्थाओं में निरन्तर जीवराशि उत्पन्न होती ही है ॥ ३५॥ स्वयं मरे हुए भैंसे और बैल आदि प्राणियों का भी जो माँस होता है, उसमें भी उसके आश्रय से रहने वाले निगोद जीवों के विघात से हिंसा होती ही है। ।। ३५+ १ । कहा भी है कारण यह है कि कच्ची, पकी हुई और वर्तमान में पकती हुई भी मास की डलियों में निरन्तर उसी जाति के निगोद जीवों की उत्पत्ति होती रहती है ।। ३५२२ ॥ जो थोडे से कष्ट से अपने लिये सुख के उत्पन्न करने का प्रयत्न करता है, उसे प्रतिदिन दूसरे के प्रति ऐसे व्यवहार को नहीं करना चाहिये, जो स्वयं अपने लिये अभीष्ट न हो। जो ३५) 1D माण्डव्यऋषिः । ३५*१) 1 मृतकमांसे. 2 तस्य मांसस्याश्रितानां निगोदानां विनाशात । ३५.*२11 Dअपक्वेष पक्वेष, 2 D पच्यमानः सन सूक्ष्मबादराः. 3 P D खण्डेष. 4 निरन्तरेण,D सत्त्वस्य जातं सात्वं 5 उत्पादात्. 6 मांसजातीनां निगोदानाम् । ३६) 1 कर्तम. 2 आत्माहितकार्याणि. 3 परेष.4 सौख्यम्. 5 द्वेषं करोति. 6 धर्मम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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