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________________ -११. ३४] - आद्य प्रतिमाप्रपञ्चनम् - 860 ) अभिमानभयजुगुप्साहास्यारतिशोककामको पाद्याः । हिंसायाः पर्यायाः सर्वे ऽपि च नरकसंनिहिताः || ३२*१ 861 ) मद्यैकबिन्दुसंपन्नाः प्राणिनः संचरन्ति चेत् । पूरयेयुर्न संदेहः समस्तमपि विष्टम् ॥ ३२२ 862 ) एकस्मिन् वासरे मद्यनिट तेघूतिलेः किल । एतदोषात्सहायेषु मृतेष्वापदनापदम् ॥ ३२३ 863 ) तद्वन्मांसं प्राणिनामेव घाताज्जातं पातात्खच्च विप्रव्रजस्य । तस्मान्मांसं खादतान्मा दयालुः किचैतस्मान्नेर्शुरन्ये बकायाः ।। ३३ 864 ) स्वभावदुर्गन्ध्यशुचि प्रसिद्धं परस्य देहोत्थनेनं मांसम् । 5 २२३ करोत्यंकृत्यं यदि नाम मर्त्यो ध्रुवं सं पोष्यं न वपुस्ततो ऽतः ॥ ३४ अभिमान, भय, जुगुप्सा (घृणा), परिहास, अरति, ये बुरे कार्य करने में प्रीति, शोक, कामविकार और क्रोध आदिक सब हिंसा के ही अवस्थाविशेष हैं । ये सब उस मद्य के निमित्त से उत्पन्न हुआ करते हैं ।। ३२*१ ॥ के एक बिन्दु में उत्पन्न हुए प्राणी यदि संचार करें तो वे इस समस्त लोक को व्याप्त कर देंगे, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है ॥३२*२॥ धूर्तिल नामक चोर केवल एक दिन के लिये ही उस मद्य का परित्याग करने से उक्त मद्य के पान के दोष से अन्य चार सहायक चोरों के मर जानेपर आपत्ति बच गया था । ( अभिप्राय यह है कि एक दिन मद्य के न पीने से धूर्तिल नामक चोर तो बच गया था, किन्तु शेष चार चोर उस मद्य के पीने से परस्पर लडकर मृत्यु को प्राप्त हुए ) ॥ ३२३ ॥ मद्य के समान माँस भी प्राणियों के घात से ही उत्पन्न होता है । -- -(?) इसलिये दयालु पुरुष उसका भक्षण न करें । इसके सेवन से अन्य बक राजा आदि नष्ट हुए हैं ॥ ३३ ॥ 1 स्वभावतः दुर्गन्ध से संयुक्त और अपवित्र माँस दूसरे - मृग आदि - प्राणी के शरीर के पीडन से सिद्ध ( प्राप्त है । और जब वह मृत्यु - उस माँसके आश्रयभूत प्राणी का मरण - अकाको करता है - उसे कष्ट पहुँचाता है - तब वैसी अवस्था में मनुष्य को उस मांस के आश्रय से ३२*१) 1 D प्रवेशकाः । ३२*२) 1 D सूक्ष्मजीवाः 2 D° संदेह 3 त्रिभुवनम् । ३२*३ ) 1 घूर्तिलनामा कश्चित्. 2 एतन्मद्यस्य दोषात्. 3 सहायेषु मित्रेषु मृतेषु. 4 अनापदं पदं प्राप्तः । ३३ ) 1 आपदः सकाशात्. 2 आकाशात्. 3 कारणात्. 4 मा मांसं दयालुभेक्षताम् 5 मांसात्. 6 PD नष्टाः 7 बकराजादयः । ३४) 1 क्लेदनेन, D विनाशेन. 2 P D करोत्वकृत्यम्. 3 P° मृत्यु. 4 मृत्यु:. 5 मांसात्. 6 कारणात् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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