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-११. ३७*४] - आद्यप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
२२५. 869 ) यस्तदासुखसंगतो न वा मौग्ध्यभाग्विशदधर्मकर्मणि ।
आयतौ सकलदुःखवजितो ऽमुत्रं चात्रं भविता स मानवः ॥ ३७ 870 ) यः परानुपघातेन सुखसेवापरायणः ।
स सुखं सेवमानो ऽपि जन्मान्तरसुखाश्रयः ॥ ३७*१ 871) स भ्रभारः परं प्राणी जीवन्नपि मृतश्च सः।।
यो न धर्मार्थकामेषु' भवेदन्यतमाश्रयः ॥३७*२ 872 ) यः स्वतो वान्यतो वापि नाधर्माय समीहते ।
स एव विदुषामाद्यो विपरीतं चरन् जडः ॥ ३७*३ 873 ) यत्परत्र करोतीहँ सुखं वा दुःखमेव वा।
वृद्धये धनवंदत्तं स्वस्य तज्जायते ऽधिकम् ॥ ३७*४ धर्म से प्राप्त हुए सुख का स्वयं अनुभव करता हुआ उसी धर्म से द्वेष करता है उसे मूर्ख ही समझना चाहिये । ठीक है- ऐसा कौनसा मूर्ख है जो अभीष्ट फल की प्राप्ति के कारणभूत कल्पवृक्ष को स्वयं काट डालता हो ॥३६ ॥
जो मनुष्य तात्कालिक सुख से संयुक्त होकर निर्मल धर्मकार्य में मूढता को प्राप्त नहीं होता है-(विवेकहीन होकर उसमें आसक्त होता हुआ धर्मक्रियाओं को नहीं छोडता है)-वह परिणाम(फलकाल)में इस लोक और परलोक दोनों में ही समस्त दुःखों से रहित होता है ॥३७॥
जो दूसरे प्राणियों का घात न कर के सुखोपभोग में तत्पर रहता है, वह वर्तमान भव में सुख का अनुभव करता हुआ आगे के भव में भी उस सुख का उपभोग किया करता है ॥३७*१॥
जो धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों में से किसी एक पुरुषार्थ का भी आश्रय नहीं लेता है, वह केवल पृथिवी का भार होकर जीता हुआ भी मरे हुए के ही समान है ॥३७*२
जो सत्पुरुष स्वयं और अन्य की प्रेरणा से भी अधर्म कार्य करने के लिये उद्युक्त नहीं होता है, वही विद्वानों में मुख्य होता है । इसके विपरीत जो पुरुष स्वतः अथवा अन्य की प्रेरणा से धर्म से विपरीत आचरण करता है उसे जड (मूर्ख) समझना चाहिये ॥३७*३॥
___ संसार में जो वस्तु दूसरे प्राणियों के लिये सुख को अथवा दुख को ही करती है, वह वृद्धि के निमित्त दिये गये धन के समान अपने लिये अधिक सुख अथवा दुख का ही कारण होती,
३७) 1 तत्कालजातम. 2 Dविवेकवान न. 3 वद्धावस्थायाम. D उत्तरकाले. 4 परत्र.5 इहलोके । ३७*२) 1 धर्मार्थकामेषु मध्ये. 2 अन्यतम एकाश्रयो न भवेत् सोऽपि जीवन्नपि मृतः । ३७*४) 1 परेषु, D अन्यस्मिन् कस्मिश्चिज्जीवे. 2 संसारे. 3 वृद्धिनिमित्तम्. 4 D सुखवत्. 5 आत्मनः. 6 तस्मात् सुखदुःखात् । ....,
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