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________________ २२० - धर्मरत्नाकर: [११. १९846) निःशेषसंसारविषद्रुमूलकार्ष कपित्वा कुलयां शेषान् । योगप्रवृत्युत्थितकर्मशत्रून् स्वरूपराज्योल्लसिप्तप्रतापः ॥ १९ 847) सुमेरुवन्निःप्रति कम्पभावी संस्पृश्यमानश्च मलैनभोक्त्'। निर्वातपायोधिदात्मसुस्य ईदृग्यथाख्यातमवादि जीवः ॥ २० । युग्मम् 848 ) ममैदमस्याहमिति प्रवृत्त प्रतिक्षणोल्लासिक्किल्पजालैः। अनाविलः स्वस्थितिमात्रस्वस्थो दृग्जनिचारित्रमयों ऽथ जीवः ॥ २१ 849) जीवो न हन्तव्य इतीदृशो वा समस्तसावधविविक्तवृत्तिः । ___ काले मिते वाप्यमिते च जीवः सामायिकं धर्म इति प्रधानम् ॥२२ । युग्मम् 850 ) संज्वालनामत्रिकषायशान्तिक्षतिज्वलत्सयमभारसारः। सूक्ष्मेण लोभेन च लाञ्छितो यः स सूक्ष्मचारित्रमयो ऽस्ति जीवः ॥२३ जीव जब समस्त संसाररूप विषवृक्ष को-मोहनीय कर्म को-तथा कुलक को ज्ञानावरणादि अन्य तीन घातियां कर्मों के कुल को समूल नष्ट करके योग की प्रवृत्ति से बन्धनेवाले शेष वेदनीय कर्म को भी नष्ट कर देता है- स्थिति व अनुभागरूप बन्धसे रहित कर देता है - तब वह आत्मस्वरूप के राज्य से विकसित प्रताप से सुशोभित, सुमेरु पर्वत के समान स्थिर, आकाश के सेंमानं मल से-कर्मकलुषता से-अस्पृष्ट रहनेवाला और वायु के आघात से रहित समुद्र के समान अपने आत्मस्वरूप में अवस्थित हो जाता है। यही यथाख्यात चारित्र का स्वरूप कहा गया हैं ।। १९-२० ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रस्वरूप जीव जब 'यह-धन-धान्या दिक परपदार्थ- मेरे हैं और मैं इनका स्वामी हूँ, इस प्रकार प्रवृत्त हो कर प्रत्येक समय में विकास को प्राप्त होनेवाले विकल्पसमूहों से मलिन न हो कर एकमात्र आत्मस्थिति में – निजस्वरूप में-भली भाँति स्थित होता है, तब उसके सामायिक चारित्र आविर्भूत होता है। अथवा, 'किसी भी प्राणो का घात करंना योग्य नहीं है' इस प्रकार के विवेक से जिसका व्यवहार कुछ मियत काल तक अथवा जीवनपर्यंत के लिये हिंसादिक समस्त पाप क्रियाओं से रहित हो चुका है वह सामायिक चारित्र का धारक होता है । यह सामायिक मुनिधर्म में प्रधान है ॥२१-२२॥ संज्वलन, क्रोध, मान और माया इन तीन कषायों के उपशम अथवा क्षय से जिसके यद्यपि श्रेष्ठ सामायिक आदि रूप संयम का भार प्रकाशमान रहता है फिर भी जो जीव सूक्ष्म १९) 1 PD काषं कषित्वा मलोत्पाटनं कृत्वा. 2 P° कुलयंश्च । २०) 1 आकाशवत. 2 PD निर्वातसमूद्रवत. 3 यथाख्यातं चरित्रम्.4 कथितवान् । २१) 1 अकलुष: D न मि [म ] लितः । २२) 1D मर्यादासहिते।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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