________________
२१९
-११. १८]
- आद्यप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 841) मतिश्रुतावधिज्ञानमनःपर्ययकेवलम् ।
___परोक्षे विकलाध्यक्षे प्रत्यक्षं सकलं क्रमात् ॥ १४ 842 ) मतिश्रुतावधिज्ञान विपर्ये ति कुदृष्टिषु । .
सशर्करं यथा क्षीरं पित्ताधिज्वरिते कट ॥ १५ 843) विधूतदृङ्मोहबलैरभीक्ष्णं' समञ्जसज्ञानविबुद्धतत्त्वैः।
प्रकम्पदूरीकृतचारुचित्तैश्चरित्रभारः समुपास्यते ऽतः ॥ १६ 844 ) सम्यक्सज्ञानचारित्रं लभते ज्ञानपूर्वकम् । ..
विज्ञानानन्तरं तेनं चारित्रोपास्तिरुच्यते ॥ १७ 845 ) समस्तसावध वियोगजातं' भवत्युदासीनतमं चरित्रम् ।
चितं कषायैः सकलविविक्तं तदात्मरूपं विशदं सदैव ॥ १८
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन पाँच ज्ञानों में क्रम से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष, तथा केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है ॥ १४॥
__जैसे पित्तज्वर वाले मनुष्य को खाँड से मिश्रित मधुर दूध कडुआ लगता है वैसे ही मिथ्यादष्टियों में मति श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान विपरीतता को प्राप्त होते हैं । (वस्तुस्वरूप को वे अन्यथा ग्रहण करते हैं ) ॥ १५ ॥
जो दर्शन मोहनीय के सामर्थ्य को नष्ट कर के निरन्तर समीचीन ज्ञान के द्वारा वस्तु. स्वरूप को यथार्थरूप से ग्रहण किया करते हैं तथा जिनका निर्मल चित्त स्थिरता को प्राप्त हो चुका है, वे सज्जन सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के पश्चात् चारित्र के भारकी उपासना किया करते हैं। (सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानपूर्वक वे चारित्र का परिपालन करते हैं) ॥ १६ ॥
चूंकि चारित्र ज्ञानपूर्वक ही समीचीन' संज्ञा को प्राप्त होता है- यथार्थ को प्राप्त करता है । इसीलिये विज्ञान के अनन्तर-सम्यग्दर्शन-ज्ञान के पश्चात् ही उस चारित्र की आराधना कही गई है॥ १७ ॥
संपूर्ण पातकों का अभाव हो जाने से अतिशय उदासीन-राग-द्वेष से रहित-अर्थात् माध्यस्थ भाव से युक्त जो चारित्र प्राप्त होता है, वह सर्व कषायों से रहित हो कर निरन्तर निर्मलता को प्राप्त होता हुआ आत्मा का स्वस्वरूप है ॥ १८ ॥
१४) 1 प्रत्यक्षे, D अवधिमन:पर्यययोः परोक्षापरोक्षे । १५) 1 कुज्ञान । १६) 1 PD वारंवारं [चिन्तनम्. ] 2 पुरुषैः । १७) 1 कारणेन. 2 सेवा । १८) 1 व्यवहारचरित्रम. 2 अतिशयेन उदासीनम्. 3 P'चित्तम्. 4 रहितम्, 5 PD चारित्रम् निश्चयचारित्रम्. 6 D निर्मलम् ।