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________________ - ११.२८ ] - आद्यप्रतिमाप्रपञ्चनम् – 851) प्रत्यक्षतीर्थाधिपसं निधानाद् गच्छन् धरायां निहितैकपादः । परक्रमन्यासनिबद्ध दृष्टौ कुतश्चिदाविः स्थितजीव राशौ ॥ २४ 852 ) षण्मासपर्यन्तविराजमानतथास्थितिः किन्त्वहमेक एव । चित्तस्थिता हंकृतिरेवमस्ति पुमान् परीहारचरित्रचञ्चुः || २५ | युग्मम् 853 ) हिंसानृतस्तेयमथाङ्गनाङगसंर्गः स्वलाम्पटयमतो ह्यशेषम् । महानिवृत्तिर्महतामभीष्टं महाव्रतं नामितविश्वलोकम् ।। २६ 854 ) छेदे कुतश्चिच्च महाव्रतानां संस्थापनानेकभिदावकीर्णम् । छेदोपसंस्थापनमेतदुक्तम मुक्तचारित्रगुणं तदेव || २७ ॥ युग्मम् 855) निवृत्तियोगे सकले निविष्टो भवेद्यतीशेः समयस्य सारे । यात्वेकदेश | द्विरतिस्तु तस्यामुपासकः स्यान्निरतो दयादौ ॥ २८ 1 3 २२१ संज्वलन लोभ के उदय से लांछित हो कर यथाख्यात चारित्र से वंचित होता है, यह सूक्ष्म ( साम्पराय ) चारित्रका धारक होता है ।। २३ ॥ जो प्रत्यक्ष में तीर्थंकर के सान्निध्य में रहकर पृथिवीपर विहार करते समय वहाँ एक पाँव को रखता है और दूसरे पाँव को रखने के लिये दृष्टि के डालने पर यदि कहीं से जीवसमूह आकर वहीं स्थित होता है तो दूसरे पाँव को ऊपर उठाकर छह महीने तक उसी अवस्था में स्थित होता हुआ ' मैं ही एक ऐसे सामर्थ्यवाला हूँ ' इस प्रकार के अहंकार को मन में रखता है, वह मुनि परिहारविशुद्धि चारित्र का धारक होता है ॥ २४-२५ ॥ हिंसा, असत्य भाषण, चोरी, स्त्रीसंभोग और अपने अपने विषयों में इन्द्रियों की अतिशय लम्पटता, अर्थात् धनधान्यादि परिग्रहों में अतिशय आसक्ति, ये पाँच पाप हैं । महापुरुष जो इच्छानुसार उनका अतिशय परित्याग किया करते हैं, इसका नाम महाव्रत है। इसके परिपालन से समस्त लोक नम्रीभूत होते हैं । अज्ञानता व प्रमादरूप किसी कारण से उक्त महाव्रतों का छेद ( विनाश) होनेपर उनको अनेक भेदों से युक्त जो स्थापन किया जाता है उसे छेदस्थापन चारित्र कहते हैं । वह चारित्र गुणों से परिपूर्ण ही होता है ।। २६-२७ ॥ आगम अथवा आत्मा के सारभूत इस सम्पूर्ण निवृत्ति योग में हिंसादि पापों के त्याग में मुनि स्थिर रहते हैं । तथा इन्हीं पापों से एकदेशरूप से जो विरति होती है, उसका आराधक दया आदि गुणों में तत्पर रहनेवाला श्रावक होता है । ( अभिप्राय यह है कि मुनि तो ~ २४) 1 D प्रकट | २६ ) 1 परिग्रह | २७ ) 1P D गणम् : २८ ) 1D मुनि: 2 विरतो. 3 D दयादेः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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