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________________ - ११.९] - आद्यप्ततिमप्रपञ्चनम् - 833) क्षयतः क्षयोपशपतो भवति ज्ञानावृतेः स इह किंतु । दर्शनसहजो ऽपि ततो बोधः पश्चादुपास्यते सद्भिः॥ ६ 834) प्रत्यक्षश्च परोक्षश्च द्वैध बोधो विधीयते । अन्यत्र केवलज्ञानात् सं प्रत्येकमनेकधा ॥ ७ 835 ) षट्त्रिंशत्रिशतैरवग्रहमुखैर्भेदैः परैः स्यान्मतिः पूर्वाङगैः कलितं श्रुतं बहुविधं स्यादङ्गवाह्यात्मकम् । विज्ञयो ह्यनुगामिमुख्यविसरभेदात्मकश्चावधिः ख्यातश्चर्जुमंतिद्विधैव विपुलो बोधो मनःपर्ययः ।। ८ 836 ) त्रयात्मकार्थेषु' हि सप्तभङ्गिकानुरोधवत्स्वव्यवसायकल्पनम् । विपर्ययानध्यवसायसंशयविविक्तरूपं निजरूपमेव तत् ।। ९ मन को लगाकर विपरीत धारणा नहीं करना ६) उभयशुद्धि- ग्रन्थ और अर्थ की शुद्धि धारण करना । अनिन्हव-किसी ने गुरु से अध्ययन किया तब किसी ने पूछा कि यह ज्ञान तुमने कहाँ से प्राप्त किया तो गुरु के नाम का उल्लेख अत्यादर से करना। ये सम्यग्ज्ञानप्राप्ति के लिये करें।।५॥ वह सम्यग्ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से व क्षयोपशम से होता है । इसीलिये सम्यग्दर्शन के साथ उत्पन्न होनेवाले उक्त सम्यग्ज्ञान की आराधना सत्पुरुषों के द्वारा सम्यग्दर्शन के पश्चात् की जाती है ॥ ६ ॥ वह ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है । उसके मतिज्ञान आदि जो अन्य पाँच भेद हैं, उनमें एक केवलज्ञान को छोडकर शेष चारों में प्रत्येक अनेक प्रकार का है ॥ ७ ॥ यथा- अवग्रह आदि तथा अन्य भेदों से मतिज्ञान के तीनसौ छत्तीस (३३६) भेद हैं। अंगप्रविष्ट और अंगबाहय रूप दो प्रकार के श्रुतज्ञान में अंगप्रविष्ट श्रुत बारह अंग और चौदह पूर्व आदि रूप अनेक भेदों से संयुक्त है। दूसरा अंगबाहयरूप श्रुत सामायिक आदि के भेदसे बहुत प्रकारका है । अवधिज्ञान अनुगामी आदि भेदोंसे अनेक प्रकारका जानना चाहिो । मनःपर्ययज्ञान ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो प्रकार का प्रसिद्ध है ॥ ८॥ उत्पाद, व्यय और रीव्य स्वरूप पदार्थों में सप्तभंगी का अनुसरण करते हुए अपने निश्चय नय को कल्पनापूर्वक जो संशय, विपर्यय व अनध्यवसायसे रहितता है, यही सम्यग्ज्ञान का निजस्वरूप है । (अभिप्राय यह है कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप पदार्थों को विषय करने wwwrrrrrrrrrrrrror ६) 1 D पुरुषैः । ७) 1 मत्यादिचतुष्टयेषु. 2 बोधः । ८) 1 D समूहः. 2 ऋजुमतिः । ९) 1 उत्पादश्ययध्रौव्यादिषु. 2 यथा स्यात् तथा. 3 संशयविमोहविभ्रमकोषवयरहितं केवलज्ञानम्. 4 अतीन्द्रियज्ञानम् । २८
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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