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________________ [ ११. ४ २१६ - धर्मरत्नाकरः - 831 ) दृङमोहस्योपशमात् क्षयोपशान्तिद्वयाच्च जायेत । सम्यक्संज्ञाहेतुः सम्यक्त्वं स्याच्च बोधस्य ॥ ४ । युग्मम् । 832 ) सम्यग्ज्ञानमतो ऽस्य कार्यमसिवदीपप्रभावत्सदा व्यग्रं वस्तुविवेकशेखरतया चैकं विधानेकधा । आराध्यं तदनन्तरं विनयतः कालाच्च सावग्रहात् ग्रन्थार्थोभयंसंयुतं बहुमतेस्त्यक्त्वा गुरोनिह्नवम् ॥ ५ जो निश्चल श्रद्धान होता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । वह दर्शनमोह के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम से होता है तथा वह ज्ञानकी 'सम्यग्ज्ञान' इस संज्ञा का कारण है । अर्थात् सम्यग्दर्शन के होने पर ही ज्ञान के समीचीनपना आता है, जिस से वह सम्यग्ज्ञान कहा जाता है ॥३-४ ॥ चूंकि ज्ञान की समीचीनता का कारण पूर्वोक्त सम्यग्दर्शन ही है, अतएव उन दोनों में परमार्थसे भेद के न होने पर भी प्रस्तुत सम्यग्ज्ञान उक्त सम्यग्दर्शनका कार्य इस प्रकार माना गया है जिस प्रकार कि दीपक से अभिन्न उसकी प्रभा उस दीपकका कार्य मानी जाती है। वह सम्यग्ज्ञान तलवार की धार के समान तीक्ष्ण-वस्तु को भेदनेवाला (जाननेवाला)होकर निरन्तर वस्तु के विवेक (पृथक् पृथक् अनेक विषयोंके ग्रहण) रूप शिखा की अपेक्षा व्यग्र (अस्थिर) है । तथा निश्चय से एक (अखण्ड)होकर भी वह दो अथवा अनेक प्रकारका भी है। ग्रन्थ (शब्द) अर्थ और उभय (ग्रन्थ-अर्थ) स्वरूप उस सम्यग्ज्ञानकी आराधना उक्त सम्यग्दर्शनके पश्चात् विनयपूर्वक अवग्रह के साथ योग्य समय में गुरु के नाम को न छिपाते हुए अतिशय आदरपूर्वक करनी चाहिये। अभिप्राय यह है कि उक्त सम्यग्ज्ञान की आराधना निम्न आठ अंगों के द्वारा की जाती है-१) ग्रन्थ २) अर्थ ३) उभय (ग्रन्थ-अर्थ) ४) काल ५) विनय ६)अवग्रह (उपधान) ७) बहुमान और ८) अनिव विशेषार्थ-श्रुतज्ञान एक है, द्रव्यश्रुत पद, वाक्य, शास्त्ररूप है । भावथुत-मतिज्ञानके अनंतर होनेवाला अनेक विषयों की चर्चा करनेवाला ज्ञान। अनेकधा-आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अकरा भेद और उत्पादपूर्वादि चौदह भेद हैं । ज्ञानार्जनके आठ उपाय हैं १) विनय-इसे भक्ति कहते हैं। अर्थात हात जोडकर मस्तक पर रखना, अंगों की पवित्रता रखना, बुद्धि को एकाग्र करना। २) कालविनय-स्वाध्याय के समय को नहीं टालन।, नियमित समय में स्वाध्याय करना । ३) अवग्रह-जिस सूत्र के अध्ययन में जिस व्रत को धारण करना चाहिये उसे धारण करना ४) ग्रन्थशुद्धि-ग्रन्थ अर्थात् पद, वाक्योंका शुद्ध उच्चारादिक करना ५) अर्थशुद्धि-उसके अर्थ में ४) 1 क्षयोपशमद्वयाच्च । ५) 1 सम्यग्ज्ञानस्य [ सम्यग्दर्शनस्य ]. 2 सम्यग्ज्ञानस्याष्टावङगानि. 3 सहावग्रहम्. 4 विजन. 5 अर्थ तदुभयाग्रे विजनयोः. 6 बहुमानतः. 7 PD गुरुलोपनम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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